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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Paksha to Pitara  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Paksha - Panchami  ( words like Paksha / side, Pakshee / Pakshi / bird, Panchachuudaa, Panchajana, Panchanada, Panchamee / Panchami / 5th day etc. )

Panchamudraa - Patanga ( Pancharaatra, Panchashikha, Panchaagni, Panchaala, Patanga etc. )

Patanjali - Pada ( Patanjali, Pataakaa / flag, Pati / husband, Pativrataa / chaste woman, Patnee / Patni / wife, Patnivrataa / chaste man, Patra / leaf, Pada / level etc.)

Padma - Padmabhuu (  Padma / lotus, Padmanaabha etc.)

Padmamaalini - Pannaga ( Padmaraaga, Padmaa, Padmaavati, Padminee / Padmini, Panasa etc. )

Pannama - Parashunaabha  ( Pampaa, Payah / juice, Para, Paramaartha, Parameshthi, Parashu etc. )

Parashuraama - Paraashara( Parashuraama, Paraa / higher, Paraavasu, Paraashara etc)

Parikampa - Parnaashaa  ( Parigha, Parimala, Parivaha, Pareekshita / Parikshita, Parjanya, Parna / leaf, Parnaashaa etc.)

Parnini - Pallava (  Parva / junctions, Parvata / mountain, Palaasha etc.)

Palli - Pashchima (Pavana / air, Pavamaana, Pavitra / pious, Pashu / animal, Pashupati, Pashupaala etc.)

Pahlava - Paatha (Pahlava, Paaka, Paakashaasana, Paakhanda, Paanchajanya, Paanchaala, Paatala, Paataliputra, Paatha etc.)

Paani - Paatra  (Paani / hand, Paanini, Paandava, Paandu, Pandura, Paandya, Paataala, Paataalaketu, Paatra / vessel etc. )

Paada - Paapa (Paada / foot / step, Paadukaa / sandals, Paapa / sin etc. )

 Paayasa - Paarvati ( Paara, Paarada / mercury, Paaramitaa, Paaraavata, Paarijaata, Paariyaatra, Paarvati / Parvati etc.)

Paarshva - Paasha (  Paarshnigraha, Paalaka, Paavaka / fire, Paasha / trap etc.)

Paashupata - Pichindila ( Paashupata, Paashaana / stone, Pinga, Pingala, Pingalaa, Pingaaksha etc.)

Pichu - Pitara ( Pinda, Pindaaraka, Pitara / manes etc. )

 

 

पयः

टिप्पणी : आधुनिक कृषि विज्ञान में यह प्रयत्न चल रहा है कि वृक्षों की काष्ठ को अधिक से अधिक मृदु कैसे बनाया जाए जिससे उस मृदु काष्ठ का उपयोग कागज आदि बनाने के लिए किया जा सके । काष्ठ के कठोर होने का कारण यह बताया गया है कि वृक्ष गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में वर्धन करने के लिए एक प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करते हैं जिससे काष्ठ कठोर हो जाता है । अतः अब गुरुत्वाकर्षण से रहित अन्तरिक्ष में ले जाकर वृक्षों पर प्रयोग चल रहे हैं । वृक्षों की काष्ठ के कठोर होने के तथ्य को पयः के संदर्भ में भी लागू किया जा सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.७ में अग्निहोत्र के संदर्भ में कहा गया है कि अस्त होते हुए सूर्य ने अपना तेज पशुओं में पयः के रूप में स्थापित किया(अथर्ववेद १९.३१.५ में बृहस्पति व सविता से प्रार्थना की गई है कि पशुओं में पयः की स्थापना करे और ओषधियों में रस की ) । पयः की स्थापना पशुओं में ही क्यों की गई, वनस्पति या पक्षी आदि जगत में क्यों नहीं, इसका उत्तर यह हो सकता है कि इस प्रकृति में पशुओं को ही प्रथम बार यह शक्ति प्राप्त हुई है कि वे गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध भी तिर्यक् रूप में गति कर सकें । लेकिन पशु कार्य - कारण सम्बन्ध से बंधे हुए होते हैं, अतः इस तनाव के कारण यह पयः उनमें नष्ट हो जाता है, कठोर द्रव्य में रूपान्तरित हो जाता है, वैसे ही जैसे वृक्षों की मृदु काष्ठ कठोर काष्ठ में । यदि पयः को सुरक्षित रखना है तो कार्य - कारण सम्बन्ध से उत्पन्न तनाव को न्यूनतम करना होगा ।

     शतपथ ब्राह्मण ४.१.४.८ में मैत्रावरुण ग्रह का पयः द्वारा श्रीणन करने का निर्देश है । इस संदर्भ में एक आख्यान के रूप में कहा गया है कि मित्र नामक देव की वृत्र के हनन में रुचि नहीं थी क्योंकि वह तो सबका मित्र है । लेकिन देवों ने मित्र को वृत्र वध के लिए बाध्य किया । इससे रुष्ट होकर पशु मित्र से परे चले गए । जो पयः से मैत्रावरुण ग्रह का श्रीणन करते हैं, वह पशुओं की कमी को ही पूरा करते हैं क्योंकि पयः पशुरूप है । जो पयः है, वह मित्र का है, सोम वरुण का है । इस कथन में पयः का मित्र के साथ सम्बन्ध स्थापित करना उपरिकथित प्रतिक्रिया रहित स्थिति में पयः के सुरक्षित होने की धारणा की पुष्टि करता है । अथर्ववेद १२.१.१० में कहा गया है कि इन्द्र ने जिस भूमि को स्वयं के लिए अनमित्रा बनाया था, वह भूमि मुझ पुत्र रूप के लिए पयः का सृजन करे ।       शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.५४ व ५६ में कहा गया है कि प्रजापति का रेतः बिखर कर फैल गया । देवों ने उसे एकत्र करके मैत्रावरुणी पयस्या द्वारा पुनः स्थापित किया । यह जो रेतः है, यह पयः रूप ही है । यह जो अग्नि की चिति बनाते हैं, यह प्रजापति का वह रूप है जो रेतः के बिखरने से ह्रास को प्राप्त हुआ था । शतपथ ब्राह्मण का यह कथन पयः के संदर्भ में यास्क की निरुक्ति( ३.२.१) को समझने में भी सहायक हो सकता है । यास्क ने केवल इतना ही कहा है कि पयः वह है जो पीने के लिए है या प्यायन करता है । लेकिन वैदिक साहित्य में इस कथन का और अधिक स्पष्ट रूप मिल जाता है - पयः वह है जो रिरिचान का आप्यायन करता है( शतपथ ब्राह्मण ४.४.४.८) । रिरिचान से अर्थ है जिसका रेतः गिरकर नष्ट हो गया है, जो ऋण में चला गया है । पयः उसका आप्यायन करता है, दूसरे शब्दों में, एण्ट्रांपी या अव्यवस्था की माप में हुई वृद्धि में ह्रास लाता है । सायणाचार्य द्वारा शतपथ ब्राह्मण १.९.१.७ की व्याख्या में पयः की निरुक्ति आप्यायनं स्थावरजङ्गमानां नोपघातकम् के रूप में की है ।

     वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से मैत्रावरुणी पयस्या के उल्लेख आते हैं( उदाहरण के लिए, शतपथ ब्राह्मण ५.४.३.२७) । कहा गया है कि मित्र पृथिवी पर स्थित है जबकि वरुण द्युलोक में । बीच के लोकों की पूर्ति पयस्या करती है जो अन्न रूप है । शतपथ ब्राह्मण ५.५.१.११ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.४.१४ में प्राणोदानौ रूप मित्रावरुणौ के लिए मैत्रावरुणी पयस्या और वशा गौ की दक्षिणा का उल्लेख है । डा. फतहसिंह के अनुसार वशा वन्ध्या गौ को कहते हैं । तैत्तिरीय संहिता ७.५.१४.१ के अनुसार मित्रावरुण के लिए पयस्या निर्वाप अनुष्टुपों द्वारा, एकविंशों द्वारा, वैराजों द्वारा, शारदों द्वारा होता है । तैत्तिरीय संहिता ६.५.११.४ में यज्ञ को पंक्ति छन्द वाला बनाने के लिए जिन पांच द्रव्यों का उल्लेख है, पयस्या उनमें से एक है । तैत्तिरीय संहिता २.३.१३.२ में ऐन्द्रावरुणी पयस्या का उल्लेख आता है जिसका निर्वाप पाप से गृहीत के लिए होता है जिससे पयः नष्ट हो चुका होता है ।

      पुराणों में सार्वत्रिक रूप से आख्यान आता है कि ऋषियों ने अहंकारी राजा वेन का हनन कर दिया । वेन की ऊरु के मन्थन से निषाद का जन्म हुआ और बाहुओं के मन्थन से पृथु का । प्रजा की प्रार्थना पर पृथु ने अनुर्वर बनी भूमि का पीछा किया और उसके पश्चात् प्रजा के विभिन्न वर्गों ने भिन्न - भिन्न प्रकार के पयः का दोहन किया । उदाहरण के लिए, देवों ने इन्द्र को वत्स बनाकर ऊर्ज व बल रूप पयः का दोहन किया, ऋषियों ने बृहस्पति को वत्स बनाकर तप रूप पयः का छन्द: पात्र में दोहन किया इत्यादि । इस आख्यान में निषाद को समझने के लिए लौकिक संगीत के स्वरों व सामवेद के स्वरों के अन्तर को समझना आवश्यक होगा । सामवेद के स्वर श्रुति की, अमर्त्य स्तर की, स्तोत्र की व्यञ्जना के लिए हैं । दूसरी ओर, लौकिक संगीत के स्वर इस श्रुति को मर्त्य स्तर तक उतारने, इसे स्मृति बनाने के लिए हैं । याज्ञिक कर्मकाण्ड में वेणु के स्वरों को लौकिक संगीत के स्वर कहा गया है । पुराणों के आख्यान में राजा वेन को वेणु माना जा सकता है । लौकिक रूप में वीणा या वेणु के सात स्वर होते हैं जिनके नाम षड्-ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धैवत और निषाद हैं । कहा गया है कि अश्व धैवत स्वर में शब्द करता है जबकि हाथी निषाद स्वर में । निषाद स्वर की उत्पत्ति सर्व सन्धियों से कही गई है । आधुनिक रसायन विज्ञान के माध्यम से हमें यह ज्ञात है कि जब भी दो रसायनों का मिलन होकर कोई अभिक्रिया होती है तो उस अभिक्रिया के फलस्वरूप किसी ऊष्मा का जनन हो सकता है अथवा ऊष्मा का शोषण हो सकता है । यहां रासायनिक अभिक्रिया संधि का एक रूप है । सभी जीव अपनी इन्द्रियों द्वारा क्रिया करने हेतु इस सन्धि के फलस्वरूप उत्पन्न हुई ऊष्मा का ही उपयोग करते हैं । यदि सन्धि के फलस्वरूप उत्पन्न हुई इस ऊष्मा का शरीर की अन्य क्रियाओं के संचालन के लिए सम्यक् उपयोग हो जाता है तो इसे ऋग्वेद की ऋचाओं की भाषा में नि:ससाद कहा जाएगा - मन्द्रा वाक् अपनी स्वाभाविक स्थिति में स्थित हो गई है ( ऋग्वेद ८.१००.१०), होता अग्नि अपनी स्वाभाविक ध्रुव स्थिति में बैठ गई है, स्थित हो गई है ( ऋग्वेद १.७०.४, १.१४६.१, ६.९.४ ) । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों की भाषा में ऋग्वेद के नि:ससाद शब्द को ही निषाद का रूप दिया गया है । यह भी संभव है कि शरीर द्वारा उपयोग करने के पश्चात् भी ऊष्मा शेष रह जाए, जैसा कि प्रायः अनुभव होता है कि शरीर में बहुत अधिक ऊष्मा का अनुभव होता है । यह अतिरिक्त ऊष्मा के क्षय के कारण होता है । यह पाप की स्थिति है । ऋग्वेद की भाषा में यह संभव है कि अतिरिक्त ऊष्मा या ऊर्जा एक हर्ष उत्पन्न करे । सामवेद के स्वरों की भाषा में इसे मन्द्र स्वर कहा गया है - मद उत्पन्न करने वाला । सामवेद में धैवत स्वर का समकक्ष मन्द्र और निषाद स्वर का समकक्ष अतिस्वार्य होता है । वीणा/वेणु के स्वर मर्त्य स्तर के लिए होते हैं जबकि सामवेद के स्वर अमर्त्य स्तर के लिए । पुराणों की भाषा से ऐसा प्रतीत होता है कि निषाद से अगली मन्द्र स्थिति को पृथु का नाम दिया गया है - ऐसी ऊर्जा जो सर्वत्र फैल सके, व्याप्त हो सके । ऐसा पृथु भूमि को पयः दोहन के लिए बाध्य कर सकता है । लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि पुराणों में पृथु आख्यान में वेन के शरीर के मन्थन के फलस्वरूप जो प्रथम स्वरूप उत्थित होता है, उसे पाप पुरुष कहा गया है जिसके उत्थान की आवश्यकता नहीं है । उसका बैठे रहना ही अच्छा है । अतः उसे नि: - सीद या निषाद नाम दिया गया है । इससे अगली स्थिति पृथु रूप पुण्य पुरुष के उत्थान की है । यह भी संभव है कि पुराणों के आख्यान में निषाद पुरुष लौकिक संगीत के निषाद स्वर का प्रतीक हो और पृथु पुरुष सामवेद के अतिस्वार्य स्वर का प्रतीक हो । इसके अतिरिक्त, पौराणिक आख्यान में प्रजा के विभिन्न वर्गों के लिए जिन विभिन्न प्रकार के पयः के उल्लेख आए हैं, उन्हें समझने के लिए लौकिक संगीत के स्वरों और सामवेद के स्वरों को विस्तार से समझना आवश्यक होगा । उदाहरण के लिए, सामवेद के मन्द्र(५) स्वर के संदर्भ में नारद पुराण १.५०.१०६ में कहा गया है कि यह स्वर पिशाचों, प्रेतों, राक्षसों को जीवन देता है । इस स्वर का शरीर में स्थान रसना है । पौराणिक आख्यान में पिशाच, राक्षस आदि रुधिर रूप पयः का दोहन करते हैं । राक्षस और रस में एक सम्बन्ध है । रस रसना से सम्बन्धित है ।

      वैदिक साहित्य (ताण्ड्य ब्राह्मण २१.१.१) में एक सहस्रतमी गौ का आख्यान आता है जो एक होते हुए भी सहस्र मरुतों के लिए पयः का दोहन करती है । यम ने एक गौ को प्राप्त करने की इच्छा की । इस पर गौ को जल में डnबाया गया । वह गौ तीन प्रकार से जल से पुनः प्रकट हुई । सोम के लिए वह बभ्रु पिङ्गाक्षी एकवर्षी सोमक्रयणी थी, इन्द्र के लिए वह शबली पष्ठौही इन्द्रियैष्पा थी, यम के लिए वह जरती कुष्टा अशृङ्गी धूम्रा अनुस्तरणी थी । यह आख्यान भी पृथु के आख्यान की व्याख्या में सहायक हो सकता है क्योंकि पृथु के आख्यान में दुही जाने वाली गौ के संदर्भ में ऋषियों द्वारा दोहन पर सोम वत्स बनता है, देवों द्वारा दोहन पर इन्द्र वत्स बनता है और पितरों द्वारा दोहन पर यम/अर्यमा वत्स बनता है ।

     पृथु द्वारा पृथिवी को पयः दोहन के लिए बाध्य किए जाने का जो आख्यान पुराणों में सार्वत्रिक रूप में प्रकट हुआ है, उसका एक संक्षिप्त रूपान्तर शौनकीय अथर्ववेद ८.११.५ में भी उपलब्ध है । अथर्ववेद के इस रूपान्तर में गौ के चार स्तनों को रथन्तर, बृहत्, यज्ञायज्ञीयम् और वामदेव्यम् नाम दिए गए हैं । रथन्तर स्तन से ओषधियों का दोहन किया जाता है, बृहत् से व्यच् का, यज्ञायज्ञीयम् से यज्ञ का और वामदेव्यं से आपः का । यह कथन पुराणों में उपलब्ध नहीं है ।

     पुराणों में पृथु के आख्यान में पृथिवी रूपी गौ के दोहन के लिए स्वायम्भnव मनु, इन्द्र, बृहस्पति, प्रह्लाद - पुत्र विरोचन, चित्ररथ, तक्षक, कुबेर, हिमवान्, प्लक्ष आदि के वत्स बनने के उल्लेख हैं । वैदिक साहित्य ( तैत्तिरीय संहिता ४.२.१०.१ व ५.४.९.३, शतपथ ब्राह्मण ७.५.२.१७ व ९.२.३.३०) में कृष्णा शुक्लवत्सा गौ के वत्स के रूप में प्रायः आदित्य का उल्लेख आता है । कहा गया है कि रात्रि रूपी गौ अपने गर्भ में आदित्य रूपी शुक्ल वत्स को धारण करती है । यह आदित्य गर्भ में रह कर पयः द्वारा पुष्ट होता है । शतपथ ब्राह्मण ४.२.४.२१ में २४ अक्षरों वाली गायत्री रूपी धेनु के वत्स के रूप में ध्रुव ग्रह का उल्लेख है । शतपथ ब्राह्मण ११.३.१.१ में वाक् रूपी अग्निहोत्री गौ के मन रूपी वत्स का उल्लेख है । स्वयं अग्निहोत्र को पयः कहा गया है ।       शिव पुराण में बालक उपमन्यु द्वारा पयः प्राप्ति के लिए विरूपाक्ष शिव की आराधना करने और पयः प्राप्त करने की कथा आती है । विरूपाक्ष शिव कौन है, इसको समझाने के लिए कहा गया है कि श्रीदामा राक्षस के वध के लिए शिव ने विष्णु को सुदर्शन चक्र दिया । विष्णु ने सुदर्शन चक्र की परीक्षा करने के लिए पहले उसे शिव के ऊपर ही चलाया जिससे शिव के तीन टुकडे हो गए जिनके नाम क्रमशः हिरण्याक्ष, सुवर्णाक्ष व विश्वरूपाक्ष या विरूपाक्ष हैं । इस कथा में उपमन्यु शब्द महत्त्वपूर्ण है । जैमिनीय ब्राह्मण १.९८ में मन्यु को ६ पापों में तीसरा गिनाया गया है । इस कथन की तुलना  जैमिनीय ब्राह्मण १.७ से करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि विकृत रूप में जो मन्यु या क्रोध है, वही शुद्ध होकर अग्नि का तेज बन सकता है । अग्नि का तेज ही संवत्सर रूप में परिणत होकर सुदर्शन  चक्र बन सकता है(संवत्सर का अर्थ है पृथिवी, चन्द्रमा और सूर्य या वाक्, प्राण और मन का परस्पर सम्बद्ध होकर गति करना) । अतः पुराण की कथा में सुदर्शन चक्र का समावेश निरर्थक नहीं है । पुराणों की कथाओं में उपमन्यु ऋषि पाशुपत दीक्षा देता है, पशु और पशुपति में क्या अन्तर है यह समझाता है, दीक्षा आदि द्वारा पाशों को कैसे दूर किया जा सकता है, इसका उपदेश देता है आदि । इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि पयः को सुरक्षित रखने के लिए पाशों को खोलना आवश्यक है ।

     मन्यु और पयः के संदर्भ में महाभारत में एक आख्यान आता है कि जमदग्नि ने पितरों हेतु पयः निर्वाप किया । धर्म ने परीक्षा लेने के लिए उस पयः में क्रोध रूप से प्रवेश किया जिससे पयः दूषित हो गया । इस पर जमदग्नि ने तो प्रतिक्रिया नहीं की, लेकिन पितरों ने धर्म को शाप देकर नकुल/नेवला बना दिया । इससे आगे नकुल द्वारा अपने शरीर को स्वर्णिम बनाने का वृत्तान्त है ।

          जैमिनीय ब्राह्मण १.७ में अस्त होते हुए सूर्य द्वारा अपने तेज को पशुओं में पयः रूप में स्थापित करने का उल्लेख है । सूर्य के तेज के ६ रूपों में से यह द्वितीय रूप है । जैमिनीय ब्राह्मण १.९८ में ६ पापों में से द्वितीय पाप के रूप में तन्द्री का उल्लेख है । यह संभावना है कि पयः और तन्द्रा में कोई सम्बन्ध होगा । इसको इस प्रकार समझा जा सकता है कि पशुओं में तन्द्रा या निद्रा का कारण पयः का नष्ट हो जाना ही है ।

     अग्निष्टोम याग में दीक्षा के पश्चात् यजमान पयोव्रत का पालन करता है जिसमें वह दीक्षा के पश्चात् प्रथम दिवस में गौ के तीन स्तनों के पयः का पान करता है, दूसरे दिन केवल २ स्तनों के पयः का और तीसरे दिन केवल एक स्तन के पयः का । इससे आगे मुख्य सुत्या दिवस में वह निराहार रहता है । शतपथ ब्राह्मण ९.५.१.२ व ८ का कथन है कि दीक्षित होकर पयोव्रत का पालन करना ही तप है । इस क्षण में यजमान सोमक्रयण हेतु घोष का श्रवण करता है । तैत्तिरीय आरण्यक २.८.१ का कथन है कि दीक्षा काल में पयोव्रत ब्राह्मण के लिए है, राजन्य के लिए यवागू व्रत और वैश्य के लिए आमिक्षा व्रत । तैत्तिरीय संहिता ६.२.५.३ का कथन है कि यवागू क्रूर है जो क्रूर राजन्य के लिए विहित है । आमिक्षा पुष्टि हेतु है और वैश्य भी पुष्टि हेतु है । पयः तेजोरूप है और ब्राह्मण भी तेजोरूप है (शतपथ ब्राह्मण ३.२.४.८ में पयः और हिरण्य, दोनों को अग्नि के रेतः से उत्पन्न बताया गया है) । यहां यह भी कथन है कि स्वायम्भnव मनु प्रातःसवन, माध्यन्दिन सवन और तृतीय सवन में गौ के तीन स्तनों का पान करता है । दैत्य प्रातः सवन और तृतीय सवन में २ स्तनों का पान करते हैं जबकि देवगण मध्य रात्रि में एक स्तन का पान करते हैं । चूंकि दैत्य माध्यन्दिन सवन में क्षुधाग्रस्त रहते हैं, अतः इस काल में देवगण उनका हनन करते हैं ।

          आधुनिक जीव विज्ञान के अनुसार पशुओं में पयः या दुग्ध के अणु का प्रादुर्भाव एपीथीलियल सैल या त्वचा की कोशिकाओं के टूटने से होता है । शतपथ ब्राह्मण ६.२.११.४ में उपरवों के संदर्भ में कहा गया है कि यह पृथिवी विराट् का रूप है । यज्ञ कार्य में इस पृथिवी पर जो अधिषवण चर्म बिछाया जाता है, वह त्वक् रूप है । जो पृथिवी में उपरव( हविर्धान मण्डप में भूमि में आरपार बनाए गए बिल) बनाए जाते हैं, वह स्तन रूप हैं और जो ग्रावाण: या सोम कूटने के पत्थर हैं, वह वत्स रूप हैं । ताण्ड्य ब्राह्मण ९.९.३ में पयः को अन्तर्हित जैसा कहा गया है ।

      शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.४ में पञ्च महायज्ञ के संदर्भ में तथा तैत्तिरीय आरण्यक २.९.१ व २.१०.१ में कहा गया है कि पयः आहुतियां देवों की ऋचा रूप हैं, आज्य आहुतियां यजु रूप, सोमाहुतियां साम रूप, मेदाहुतियां अथर्वाङ्गिरस रूप, मधु आहुतियां अनुशासन, विद्या, वाकोवाक्य, इतिहास पुराण, गाथा, नाराशंसी रूप । जैसा कि ऋग्वेद तथा ऋचा की टिप्पणियों में उल्लेख किया जा चुका है, ऐतरेय ब्राह्मण में यत्कर्म क्रियमाणमृगभिवदति वाक्य का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है । इससे यह संकेत मिलता है कि ऋग्वेद की सहायता से किसी कर्म के घटित होने से पूर्व ही उसका आभास हो सकता है । आज्य आहुतियों के यजु रूप होने के संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि यजु का उद्देश्य किसी क्रिया को एण्ट्रांपी में न्यूनतम परिवर्तन करते हुए सम्पादित करना है (भौतिक रूप में किसी क्रिया को सम्पादित करने पर एण्ट्रांपी या अव्यवस्था की माप में वृद्धि होती है ) । ताण्ड्य ब्राह्मण १३.४.१० में उल्लेख आता है कि ब्रह्मवर्चस्कामी के लिए साम गान में गायत्र अयन होता है, स्व: निधन होता है जिससे द्युलोक में मधु द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करता है । ओजस्कामी के लिए त्रैष्टुभ अयन और अथकार निधन होता है जिससे द्युलोक में आज्य द्वारा प्रतिष्ठित होता है । पशुकामी के लिए जागत अयन, इडा निधन होता है जिससे पयः के द्वारा द्युलोक में प्रतिष्ठित होता है ।

     वैदिक साहित्य में सौत्रामणि याग के संदर्भ में पयः और सुरा के उल्लेख आते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.४.२ के अनुसार पयः द्वारा शुक्र रूपी अमृत का जन्म होता है जबकि सुरा द्वारा मूत्र से रेतः की प्राप्ति की जाती है । शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.८ के अनुसार पयः सोम है, अन्न सुरा । सुरा से अन्नाद्य की प्राप्ति की जाती है । पयः क्षत्र है, सुरा विट् । ब्रह्म के द्वारा क्षत्र का शोधन किया जाता है । कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण १२.७.३.१६) कि प्राण पयोग्रहा: हैं, शरीर सुराग्रहा: ; ग्राम्य पशु पयोग्रहा: हैं, आरण्यक पशु सुराग्रहा: ।

     शतपथ ब्राह्मण १२.८.२.८ में सौत्रामणि में सोमसम्पत्ति के संदर्भ में तीन रात्रियों में तीन प्रकार के पशुओं के पयः के उपयोग का निर्देश है । प्रथम रात्रि में, जो इस लोक और प्रातःसवन का प्रतीक है, आश्विन् पशु के पयः का उपयोग परिषिंचन के लिए किया जाता है , द्वितीय रात्रि में, जो अन्तरिक्ष लोक और माध्यन्दिन सवन का प्रतीक है, सारस्वत पशु के  पयः का प्रयोग किया जाता है । और तृतीय रात्रि में, जो द्यौ और तृतीय सवन का प्रतीक है, ऐन्द्र पशु के पयः का प्रयोग किया जाता है ।

     वैदिक साहित्य में कईं प्रकार के पयः का उल्लेख आता है । शतपथ ब्राह्मण १.५.३.५ में आज्य को संवत्सर का स्वं पयः कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण २.५.३.४ में मेध को पयः संज्ञा दी गई है । शतपथ ब्राह्मण ९.२.३.३१ में अग्नि को यज्ञ का शीर्ष और पयः को प्राण कहा गया है । यज्ञ में पयः द्वारा शीर्ष में प्राण को धारण करते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.६.११ में देवों की मन्द्रा राष्ट्री वाक् द्वारा ४ ऊर्ज व पयः का दोहन किया जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.३५५ व ताण्ड्य ब्राह्मण १८.४.२ के अनुसार अग्निष्टोम याग में सोम के श्रीणन के लिए प्रातःसवन में प्रतिधुक्/सद्य: दुहा हुआ? पयः का प्रयोग किया जाता है, माध्यन्दिन सवन में शृत का और तृतीय सवन में दधि का प्रयोग किया जाता है । कहा गया है कि जो सवन शुक्रिय हैं, केवल उन्हीं में श्रीणन् के लिए पयः का प्रयोग किया जाता है । शांखायन ब्राह्मण १३.४ के अनुसार १० सोमांशु हैं और जब यह सब मिलकर एक हो जाते हैं तब सोम बनता है, तब सोम सुत होता है । इनमें से शुक्र अंशु पयः है, जीव अंशु पशु है । तैत्तिरीय संहिता २.५.२.७ में अग्नीषोमीय पुरोडाश विधि के अन्तर्गत कहा गया है कि घृत अग्नि का तेज है, पयः सोम का । ऋग्वेद ३.५५.१३ में इडा के ऋत के पयः द्वारा पुष्ट होने का उल्लेख है । ताण्ड्य ब्राह्मण १८.९.२१ में राजसूय/दशपेय याग के संदर्भ में द्वादश मास वाले संवत्सर के लिए द्वादश पयांसि का उल्लेख है । इस याग में उद्गाता नामक सामवेदी ऋत्विज के लिए स्रग् ( माला) दक्षिणा का विधान है, प्रस्तोता के लिए अश्व का और प्रतिहर्त्ता के लिए धेनु का जिससे उसमें पयः की प्रतिष्ठा करते हैं ।

     अग्निष्टोम प्रवर्ग्य कर्म आदि में मृत्तिका से निर्मित महावीर पात्र में घृत को उबाला जाता है और उसमें गौ व अज पयः का क्रमिक रूप से सिञ्चन किया जाता है जिससे ऊंची ज्वालाओं के रूप में घर्म की उत्पत्ति होती है । घर्म को आकाश में आदित्य का रूप कहा गया है( शांखायन ब्राह्मण २.१) । गौ पयः का दोहन अध्वर्यु नामक ऋत्विज धातु के पात्र में करता है जबकि अज पयः का दोहन प्रतिप्रस्थाता नामक ऋत्विज मृत्तिका स्थाली में करता है । इसके अतिरिक्त, महावीर पात्र का श्रीणन करने के लिए भी अज पयः का उपयोग किया जाता है ( शतपथ ब्राह्मण १४.१.२.२५) । तैत्तिरीय आरण्यक ५.३.९ में भी अज क्षीर द्वारा श्रीणन् का निर्देश है । तैत्तिरीय आरण्यक ५.१०.१ से ऐसा आभास होता है कि पयः के शुक्रिय साम और शुक्रिय यजु के रूप में दो भाग किए गए हैं । जो गो पयः है, वह शुक्रिय साम है । जो अज पयः है, वह शुक्रिय यजु है । तैत्तिरीय आरण्यक ५.३.९ में अजक्षीर को परम पयः कहा गया है । आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १५.१०.१ में महावीर पात्र में गोपयः और अजापयः लाने के मन्त्र इस प्रकार दिए गए हैं : इन्द्राश्विना मधुनः सारघस्येति महावीरे गोपय आनयति । स्वाहा त्वा सूर्यस्य रश्मये वृष्टिवनये जुहोमीत्युद्यन्तम् ऊष्माणमनुमन्त्रयते । मधु हविरसीत्यजापयः । अजापयस आनयनमेके पूर्वं समामनन्ति । सूर्यस्य तपस्तपेत्यूष्माणम्। इससे निष्कर्ष निकलता है कि गौ पयः के प्रक्षेप से जिस आदित्य का निर्माण होता है, वह आदित्य रश्मियों वाला है । अजा पयः प्रक्षेप से जिस आदित्य का निर्माण होता है, वह केवल ताप देने वाला है । जैसा कि अन्यत्र भी टिप्पणियों में उल्लेख किया जा चुका है, अजा अवस्था सूर्योदय से पूर्व की अवस्था है, अवि सूर्योदय की और गौ मध्याह्न कालिक सूर्य की ।

     ऐसा प्रतीत होता है कि प्रवर्ग्य कर्म ही एकमात्र ऐसा कर्म है जिसमें सारे पयः का उपयोग घर्म सूर्य बनाने के लिए किया जाता है । ऐतरेय ब्राह्मण ५.२७ आदि में उल्लेख आता है कि पयः दोहन करते समय जो पयः किसी कारण से पृथिवी आदि पर स्कन्दित हो जाता है, वह ओषधी, आपः, अघ्न्या गौ, वत्स, गृह आदि में प्रवेश कर जाता है । अतः यज्ञ कार्य में वह पयः इन वस्तुओं से पुनः प्राप्त किया जाता है और उसका यज्ञ के लिए उपयोग किया जाता है । शांखायन ब्राह्मण २.१ में पयः को सब ओषधियों का रस कहा गया है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में रस को न्यूनतम अव्यवस्था, न्यूनतम एण्ट्रांपी की स्थिति समझना चाहिए । शतपथ ब्राह्मण ३.२.४.१४ का कथन है कि सारे पयः का होम करने पर ही आपः की शुक्र संज्ञा होती है ।

     वैदिक साहित्य में सार्वत्रिक रूप से ( उदाहरण के लिए तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.१.५, २.४.६.११) पयः के साथ ऊर्ज शब्द प्रकट होता है ।

     यह जानना रोचक होगा कि वैदिक साहित्य में पृथिवी के अतिरिक्त और किन - किन वस्तुओं को दोहन योग्य धेनु बनाया गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.६.५.५, शतपथ ब्राह्मण १.२.१.२२, ३.१.३.९, तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.३.५ में मही को गौ कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता के अनुसार इस मही गौ का दोहन कण्व करता है । तैत्तिरीय संहिता १.१.१०.२ में आज्य को मही का पयः कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ४.२.४.२१ में गायत्री गौ है जिसका वत्स ध्रुव ग्रह है । अथर्ववेद ३.१७.४, ३.१७.९, शतपथ ब्राह्मण ७.२.२.१० व तैत्तिरीय संहिता ४.२.५.६ में सीता को धेनु कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ९.२.३.३८ में सुमति को गौ कहा गया है जिसका दोहन कण्व करता है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.६.९, ३.७.४.१६ में बृहती द्यौ को धेनु कहा गया है । इस धेनु के इन्द्र, देव, मनुष्य वत्स हैं । तैत्तिरीय संहिता ४.२.७.१ में पृथिवी को धेनु कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.१.५.४ में अग्निहोत्र के संदर्भ में द्यौ और पृथिवी दो गायों का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.२.२ में द्यावापृथिवी से शक्वरी व रेवती द्वारा राष्ट्र के दोहन की प्रार्थना की गई है । अथर्ववेद ६.६२.१, तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.८.३ व ३.७.९.९ में द्यावापृथिवी रूपी धेनुओं का उल्लेख है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.१०.३ में देवी ऊर्जाहुति द्वारा पयः द्वारा इन्द्र का वर्धन करने का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ४.३.११.५ में व्युष्टि इष्टका को धेनु कहा गया है जबकि अथर्ववेद ३.१०.१ में अष्टका को व्युष्टि धेनु का रूप दिया गया है । अथर्ववेद ३.१२.२ में ध्रुवा शाला को पयस्वती कहा गया है । अथर्ववेद ९.३.१६ में भी पयस्वती शाला का उल्लेख है । अथर्ववेद ७.६२.२/७.६०.२ में पयस्वन्त गृहों का उल्लेख है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.४ में दिशाओं की देवी घृताची को पयस्वती कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.५ में रन्ति आशा को पयस्वती कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ४.७.१२.२ में पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौ के अतिरिक्त प्रदिशाओं को भी पयस्वती कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता ५.४.९.३ में नक्तोषासा( रात्रि - उषा) को धेनु का रूप दिया गया है जो आदित्य रूपी श्वेत वत्स को धारण करती हैं । अथर्ववेद ३.२४.१, ८.७.१७ आदि में पयस्वती ओषधियों का उल्लेख है । अथर्ववेद ४.८.४-६ ८.२.१४ में आपः को दिव्या: पयस्वती कहा गया है । अथर्ववेद ७.७७.८ व ९.१५.५ में अघ्निया गौ का उल्लेख है । अथर्ववेद ४.३८.३ में एक पयस्वती अप्सरा का उल्लेख है जो ग्लह/द्यूत में कृत को ग्रहण करती है । अथर्ववेद ७.८४.३/७.७९.३ में अमावास्या को धेनु का रूप दिया गया है । अथर्ववेद १०.१०.८, १० व ३१ में वशा गौ से पयः की उत्पत्ति और उस पयः के महत्त्व के उल्लेख हैं ।

     तैत्तिरीय ब्राह्मण २.६.८.४ में सरस्वती देवी पयः द्वारा अच्छिन्न तन्तु का निर्माण करती है । सरस्वती रहस्योपनिषद २.७ में वैदिक मन्त्र यद्वाग्वदन्त्यविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मन्द्रा । चतस्र ऊर्जं दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्या: परमं जगाम ।। के लिए भार्गव ऋषि, त्रिष्टुप् छन्द, सरस्वती देवता, क्लीम् इति बीजशक्ति: कीलनम् का उल्लेख है । ब्रह्मबिन्दु उपनिषद में पयः में निगूढ घृत की तुलना विज्ञान से की गई है जिसे प्राप्त करने के लिए मन को मन्थ बनाना पडता है और ज्ञान को नेत्र/मथानी । जैमिनीय ब्राह्मण १.२२४ में घृत को पयों का अन्त कहा गया है, वैसे ही जैसे लोंकों का अन्त स्वर्गलोक है ।

     अथर्ववेद ४.१४.६, ७.४०.१/७.३९.१ आदि में पयसं बृहन्तम् सुपर्ण का उल्लेख है जो अज है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.५.२.२ में रोहित विश्वरूप का उल्लेख है जो द्युलोक जाकर हमारे राष्ट्र को स्व: पयस् से सिंचित कर सकता है । अथर्ववेद ४.१५.६ में पर्जन्य से भूमि को पयः प्रदान करने की प्रार्थना की गई है । अथर्ववेद ३.१७.७ में शुनासीरौ द्वारा जो पयः द्युलोक में निर्मित किया गया है, उसके द्वारा पृथिवी को सिंचित करने की प्रार्थना की गई है । अथर्ववेद ३.१५.२ में देवयान पन्थों द्वारा पयः और घृत प्राप्त कराने का उल्लेख है । अथर्ववेद १९.४३.५ में सोम से हमारे अन्दर पयः धारण कराने की प्रार्थना की गई है ।

     वैदिक निघण्टु में पयः शब्द का वर्गीकरण रात्रि नाम, उदक नाम, ज्वलति कर्मा तथा अन्न नामों में किया गया है । इसके अतिरिक्त, पयस्वती शब्द का वर्गीकरण रात्रि नाम तथा पयस्वत्य: का नदी नामों में किया गया है । डा. जी. एन. भट्ट द्वारा अपने शोध प्रबन्ध वैदिक निघण्टु में उल्लेख किया गया है कि ऋग्वेद में पयः शब्द अपने अन्य रूपों सहित १०७ स्थानों पर प्रकट हुआ है । इनमें से ४८ स्थानों पर सायणाचार्य द्वारा इसका अर्थ दुग्ध किया गया है, ३५ स्थानों पर सोम या रस । रात्रि अर्थ में सायण द्वारा पयः का प्रयोग नहीं किया गया है ।

Efforts are going on in agriculture how to create trees having soft wood for use in making of paper etc. The reason for formation of hard wood in trees is that they create a reaction wood for their upward growth against gravitational force. Now there are experiments to grow trees in sky in gravity – free atmosphere. The fact of hard and soft wood can also be applied to milk in vedic literature. Any reaction will destroy milk being produced in nature. One text states that the setting sun established it’s luster in animals in the form of milk. Why the sun chose only animals for this purpose, is not much clear. Animals seem to be bound by cause and effect which is also a reaction. Hence one has to do away with cause and effect in order to preserve milk in animals.

     The analogy of milk with reaction wood is supported by the relation of milk with god Mitra(literal meaning friend of all) on earth in vedic literature. Mitra is supposed to be friend of all, whether evil or good. On the other hand, Varuna is the god who does not do blind favour. He sees right and wrong. In addition, there is one vedic mantra which states that let the earth which was made free from foes provide me the milk.

     There is a puraanic story that seers killed the selfish king Vena. They churned the body of Vena. From his thighs was born a sinful person called Nishaada. Seers instructed him to sit down, such is the interpretation of his name. Seers further churned the body of Vena and then Prithu was born out of his hands. Literal meaning of Prithu is – able to spread. Then Prithu forced the earth to milk different types of milks for all the subjects on earth. The mystery behind this story can be understood on the basis of 7 musical notes of a flute. King Vena may be symbolic of Venu, the flute. On the other hand there are another 7 notes for reciting the poems of Saama veda also. These notes are for singing of immortal song, while the song of a flute is mortal song. Nishaada is the last note in mortal music. This has been stated to get generated from all the junctions. It is well known in chemistry that the combination of two chemicals produces or absorbs or produces heat. And it is this heat which is used by our body for doing work. If no work is taken from this heat, it goes waste. So, the best situation is that this generated heat gets used in doing useful work. The same can be said of the sinful person Nishaada in the story of Vena. Let this sinful energy get reabsorbed to do useful work. Then further comes a stage when the extra energy may produce a pleasure inside us. This may have been given the name Prithu in the story. It is yet to be decided whether Prithu is equivalent of immortal segment of mortal notes.

     There is a story in Shiva Puraana that child Upamanyu was never able to taste milk. When he tasted the real milk once by chance, he insisted on getting it from his mother. His mother instructed him to worship Viruupaaksha Shiva who would provide the milk. Upamanyu does so and gets the milk. In the story, it has also been mentioned who is Viruupaaksha Shiva. Lord Shiva handed over a wheel called Sudarshana to lord Vishnu for killing a demon. Vishnu tested it on Shiva first and the wheel divided lord Shiva in three parts. One of these parts is Viruupaaksha. The name  Upamanyu is noteworthy in this story. Manyu is the name of anger which is produced in marrow. One has to purify his anger to the extent that it become the luster. And this luster then gets converted into divine wheel, the wheel of an year. Hence the introduction of a wheel in the story is not without purpose. This indicates one way in which the stress or reaction can be done away with to get the real milk. In puraanic stories, seer Upamanyu teaches how to worship lord Pashupati, the lord who removes the bondage of an animal.

     It will be interesting to know what are the forms of cows and their calfs in vedic literature.

     In Agnishtoma sacrifice,  cow and goat milks are poured into boiling butter which generates high flames. This is supposed to be the real use of milk. Such high flames should be generated in oneself. Milk which gets scattered on the earth, has been stated to produce milk in vegetable kingdom etc. Why there are milks from cow and goat, a partial answer has been found that cow milk is connected with Saama while goat milk with Yaju. Moreover, yajamaana in Agnishtoma sacrifice passes his first day subsisting on milk from 3 nipples of the cow. The second day is passed on milk from 2 nipples and the third on one nipple milk. After that, he has to remain without eating or drinking anything. The real meaning of 3,2 and 1 nipple milk is yet to be found out.

     According to modern medicine, milk is produced in animals from breaking of epithelial cells. One mantra also states a similar meaning.

First published : 14 May 2007(Jyestha Krishna 13, Vikrami Samvat 2064)

 

 

 

 

पयस्वतीरोषधयः पयस्वन् मामकं वचः । अथो पयस्वतीनामा भरेऽहं सहस्रशः ॥१॥ वेदाहं पयस्वन्तं चकार धान्यं बहु । संभृत्वा नाम यो देवस्तं वयं हवामहे योयो अयज्वनो गृहे ॥शौ ३.२४.

व्याघ्रो अधि वैयाघ्रे वि क्रमस्व दिशो महीः । विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्त्वापो दिव्याः पयस्वतीः ॥४॥ या आपो दिव्याः पयसा मदन्त्यन्तरिक्ष उत वा पृथिव्याम् । तासां त्वा सर्वासामपामभि षिञ्चामि वर्चसा ॥५॥ अभि त्वा वर्चसासिचन्न् आपो दिव्याः पयस्वतीः । यथासो मित्रवर्धनस्तथा त्वा सविता करत्॥शौ ४.८.

अजमनज्मि पयसा घृतेन दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तम् । तेन गेष्म सुकृतस्य लोकं स्वरारोहन्तो अभि नाकमुत्तमम् ॥शौअ ४.१४.

यायैः परिनृत्यत्याददाना कृतं ग्लहात्। सा नः कृतानि सीषती प्रहामाप्नोतु मायया  । सा नः पयस्वत्यैतु मा नो जैषुरिदं धनम् ॥शौ ४.३८.

दिव्यं सुपर्णं पयसं बृहन्तमपां गर्भं वृषभमोषधीनाम् । अभीपतो वृष्ट्या तर्पयन्तमा नो गोष्ठे रयिष्ठां स्थापयाति ॥शौ ७.४०.

इमे गृहा मयोभुव ऊर्जस्वन्तः पयस्वन्तः । पूर्णा वामेन तिष्ठन्तस्ते नो जानन्त्वायतः ॥शौ ७.६२.

शं ते सूर्य आ तपतु शं वातो वातु ते हृदे । शिवा अभि क्षरन्तु त्वापो दिव्याः पयस्वतीः ॥शौ ८.२.१४

यदनूचीन्द्रमैरात्त्वा ऋषभोऽह्वयत्। तस्मात्ते वृत्रहा पयः क्षीरं क्रुद्धोऽहरद्वशे ॥शौ १०.१०.१०

वशा द्यौर्वशा पृथिवी वशा विष्णुः प्रजापतिः । वशाया दुग्धमपिबन्त्साध्या वसवश्च ये ॥३०॥ वशाया दुग्धं पीत्वा साध्या वसवश्च ये । ते वै ब्रध्नस्य विष्टपि पयो अस्या उपासते ॥३१॥ सोममेनामेके दुह्रे घृतमेक उपासते ।
य एवं विदुषे वशां ददुस्ते गतास्त्रिदिवं दिवः ॥
शौ १०.१०.३२

यामश्विनावमिमातां विष्णुर्यस्यां विचक्रमे । इन्द्रो यां चक्र आत्मनेऽनमित्रां शचीपतिः । सा नो भूमिर्वि सृजतां माता पुत्राय मे पयः ॥शौ १२.१.१०

शम्भुवौ मयोभुवाविति । शम्भुवौ ते मयोभुवौ स्तामित्येवैतदाहोर्जस्वती च पयस्वती चेति रसवत्यौ त उपजीवनीये स्तामित्येवैतदाह – माश १.९.१.[७]

तं पयसा श्रीणाति । तद्यत्पयसा श्रीणाति वृत्रो वै सोम आसीत्तं यत्र देवा अघ्नंस्तम्मित्रमब्रुवंस्त्वमपि हंसीति स न चकमे सर्वस्य वा अहं मित्रमस्मि न मित्रं सन्नमित्रो भविष्यामीति तं वै त्वा यज्ञादन्तरेष्याम इत्यहमपि हन्मीति होवाच तस्मात्पशवोऽपाक्रामन्मित्रं सन्नमित्रोऽभूदिति स पशुभिर्व्यार्ध्यत तमेतद्देवाः पशुभिः समार्धयन्यत्पयसाऽश्रीणंस्तथो एवैनमेष एतत्पशुभिः समर्धयति यत्पयसा श्रीणाति – माश ४.१.४.[८]

सं वर्चसा । पयसा सं तनूभिरिति वर्चसेति तद्वर्चसा रिरिचानमाप्याययति पयसेति रसो वै पयस्तत्पयसा रिरिचानमाप्याययत्यगन्महि मनसा सं शिवेन त्वष्टा सुदत्रो विदधातु रायोऽनुमार्ष्टु तन्वो यद्विलिष्टमिति विवृढं तत्संदधाति – माश ४.४.४.[८]

अथ मैत्रावरुण्या पयस्यया यजते । देवत्रा वा एष भवति य एतत्कर्म करोति दैवम्वेतन्मिथुनं यन्मित्रावरुणौ स यदेतयानिष्ट्वा मानुष्यां चरेत्प्रत्यवरोहः स यथा दैवः सन्मानुषः स्यात्तादृक्तदथ यदेतया मैत्रावरुण्या पयस्यया यजते दैवमेवैतन्मिथुनमुपैत्येतयेष्ट्वा कामं यथाप्रतिरूपं चरेत् - ९.५.१.[५४] यद्वेवैतया मैत्रावरुण्या पयस्यया यजते । प्रजापतेर्विस्रस्ताद्रेतः परापतत्तं यत्र देवाः समस्कुर्वंस्तदस्मिन्नेतया मैत्रावरुण्या पयस्यया रेतोऽदधुस्तथैवास्मिन्नयमेतद्दधाति - ९.५.१.[५५]
स यः स प्रजापतिर्व्यस्रंसत । अयमेव स योऽयमग्निश्चीयतेऽथ यदस्मात्तद्रेतः परापतदेषा सा पयस्या मैत्रावरुणी भवति प्राणोदानौ वै मित्रावरुणौ प्राणोदाना उ वै रेतः सिक्तं विकुरुतः पयस्या भवति पयो हि रेतो यज्ञो भवति यज्ञो ह्येव यज्ञस्य रेत उपांशु भवत्युपांशु हि रेतः सिच्यतेऽन्ततो भवत्यन्ततो हि रेतो धीयते -
माश ९.५.१.[५६]