Site hosted by Angelfire.com: Build your free website today!

पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Paksha to Pitara  )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

HOME PAGE

Paksha - Panchami  ( words like Paksha / side, Pakshee / Pakshi / bird, Panchachuudaa, Panchajana, Panchanada, Panchamee / Panchami / 5th day etc. )

Panchamudraa - Patanga ( Pancharaatra, Panchashikha, Panchaagni, Panchaala, Patanga etc. )

Patanjali - Pada ( Patanjali, Pataakaa / flag, Pati / husband, Pativrataa / chaste woman, Patnee / Patni / wife, Patnivrataa / chaste man, Patra / leaf, Pada / level etc.)

Padma - Padmabhuu (  Padma / lotus, Padmanaabha etc.)

Padmamaalini - Pannaga ( Padmaraaga, Padmaa, Padmaavati, Padminee / Padmini, Panasa etc. )

Pannama - Parashunaabha  ( Pampaa, Payah / juice, Para, Paramaartha, Parameshthi, Parashu etc. )

Parashuraama - Paraashara( Parashuraama, Paraa / higher, Paraavasu, Paraashara etc)

Parikampa - Parnaashaa  ( Parigha, Parimala, Parivaha, Pareekshita / Parikshita, Parjanya, Parna / leaf, Parnaashaa etc.)

Parnini - Pallava (  Parva / junctions, Parvata / mountain, Palaasha etc.)

Palli - Pashchima (Pavana / air, Pavamaana, Pavitra / pious, Pashu / animal, Pashupati, Pashupaala etc.)

Pahlava - Paatha (Pahlava, Paaka, Paakashaasana, Paakhanda, Paanchajanya, Paanchaala, Paatala, Paataliputra, Paatha etc.)

Paani - Paatra  (Paani / hand, Paanini, Paandava, Paandu, Pandura, Paandya, Paataala, Paataalaketu, Paatra / vessel etc. )

Paada - Paapa (Paada / foot / step, Paadukaa / sandals, Paapa / sin etc. )

 Paayasa - Paarvati ( Paara, Paarada / mercury, Paaramitaa, Paaraavata, Paarijaata, Paariyaatra, Paarvati / Parvati etc.)

Paarshva - Paasha (  Paarshnigraha, Paalaka, Paavaka / fire, Paasha / trap etc.)

Paashupata - Pichindila ( Paashupata, Paashaana / stone, Pinga, Pingala, Pingalaa, Pingaaksha etc.)

Pichu - Pitara ( Pinda, Pindaaraka, Pitara / manes etc. )

 

 

Pareekshita/parikshita symbolizes such a human consciousness which is pure and sharp in all fields of senses and mind but is bound with his ego at intellectual level. As a king, such type of consciousness establishes virture(Dharma) in his entire territory(body) inspite of the presence of Kali - a creator of injustice(adharma). But is unable to attain bliss which is residing within self. Ego is a stumble stone which covers the bliss, but by God's grace, an inner higher consciousness comes forth and alarms the human consciousness to destroy this covering to uncover the bliss. This uncovering is possible and appreciable through a positive approach named Bhakti. Bhakti means accepting good and bad all equally or surrendering ones's self at the feet of almighty or joining oneself with the entire enitty or experiencing oneself as a mere part of the whole or seeing the supreme consciousness playing or dancing everywhere or loving everyone everywhere. 

Proceeding to the forest for hunting symbolizes the search within. The effort for going within self increases day by day. This has been symbolized by development of thirst and hunger in the king during hunting. Meeting with a sage symbolizes meeting with a higher self. But this higher self is not awake, or inactive. That is why the king gets no reply from him. The serpent in the story is symbolic of ego. Putting this serpent in the neck of the sage means to cover the silent consciousness within oneself with the ego present at  intellectual level. The son of the sage is symbolic of still higher self which tries to put the king at higher level of consciousness. Cursing in puraanic literature is not for bad purposes. It is just like beating by parents for good cause. The higher self wants to cut the ego, which has been symbolized by serpent Takshaka. 

First published : 14-8-2008(Shraavana shukla chaturdashee, Vikram samvat 2065)

परीक्षित कथा का रहस्यार्थ

- राधा गुप्ता

परीक्षित की कथा का संक्षिप्त स्वरूप

          महाभारत युद्ध के पश्चात् एक दिन अश्वत्थामा ने पाण्डवों के वंश को निर्बीज करने के लिए उत्तरा के गर्भ पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया । कृष्ण ने गर्भ को अपने माया कवच से आवृत्त करके उसकी रक्षा की । उपयुक्त समय आने पर उत्तरा ने बालक को जन्म दिया जो परीक्षित नाम से प्रसिद्ध हुआ । श्रीकृष्ण के स्वधाम सिधार जाने तथा पाण्डवों के महाप्रयाण के पश्चात् परीक्षित राजा बने और पृथ्वी का शासन करने लगे । श्रीकृष्ण के स्वलोक गमन के पश्चात् परीक्षित के राज्य - शासन के समय में यद्यपि अधर्म के कारण रूप कलियुग का प्रवेश हो गया था, परन्तु परीक्षित ने बुद्धिमत्तापूर्वक कलियुग का दमन किया । भयभीत कलि ने परीक्षित की शरण ग्रहण की और परीक्षित ने भी शरणागत कलि को निवास हेतु पांच स्थान प्रदान करके अपने राज्य में धर्म को चारों चरणों(सत्य, दया, तप, पवित्रता) से स्थापित कर दिया ।

          एक दिन राजा परीक्षित वन में शिकार खेलने के लिए गए । भूख - प्यास से व्याकुल होने पर वे शमीक ऋषि के आश्रम में प्रविष्ट हुए । शमीक ऋषि उस समय ध्यानावस्था में स्थित थे, अतः परीक्षित की जल की याचना को नहीं सुन सके और न ही ऋषि ने उनका सत्कार किया । परीक्षित ने ऋषि के प्रति ईर्ष्या तथा क्रोध से युक्त होकर धनुष की नोक से एक मरा सांप उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया और अपनी राजधानी में लौट आए । कुछ ही समय के पश्चात् शमीक ऋष के पुत्र शृङ्गी ऋषि को जब इस घटना का पता चला तो उसने पिता का अपमान करने वाले राजा परीक्षित को शाप दिया कि आज से सातवें दिन उसे तक्षक सर्प डस लेगा । राजा परीक्षित ऋषि के प्रति किए गए अपने निन्दित व्यवहार के लिए पहले ही पश्चात्ताप से युक्त थे । अतः उन्होंने शृङ्गी - प्रदत्त शाप को सहर्ष स्वीकार कर लिया । राजा सभी आसक्तियों का परित्याग करके गङ्गा तट पर बैठकर श्रीकृष्ण के चरण कमलों का ध्यान करने लगे । वहां बहुत से मुनियों, ऋषियों तथा श्री शुकदेव जी से उनका मिलन हुआ । परीक्षित के प्रार्थना करने पर तथा उन्हें योग्य अधिकारी जानकर श्रीशुकदेव जी ने उन्हें परम सिद्धि का स्वरूप तथा साधन के सम्बन्ध में उपदेश दिया ।

कथा की प्रतीकात्मता

अब हम कथानक के एक - एक प्रतीक को समझने का प्रयास करें -

१. अश्वत्थामा मनुष्य की ऐसी चेतना का प्रतीक है जो इन्द्रियों के निग्रह को ही सर्वोच्च अवस्था मानकर उसी से बंधी रहती है । अश्वत्थामा शब्द अश्व तथा थामा नामक दो शब्दों से बना है । अश्व का अर्थ है - इन्द्रिय, जो व्याप्ति अर्थ वाली अश~ धातु से बना है तथा थामा का अर्थ है - थामना, रोकना ।

२. परीक्षित की माता उत्तरा मनुष्य चेतना की उत्तर की ओर , अर्थात् ऊपर की ओर प्रवृत्ति को इंगित करती है । इस उत्तराभिमुख प्रवृत्ति के भीतर ही ऐसी सात्विक तथा प्रखर मनश्चेतना विद्यमान रहती है जो मनुष्य को विकास की ओर अग्रसर करती है । इसी तथ्य को कहानी में उत्तरा का गर्भवती होना कहा गया है ।

३. अश्वत्थामा अर्थात् इन्द्रिय निग्रह से ही बंधी हुई चेतना उत्तरा अर्थात् उत्तराभिमुख प्रवृत्ति के गर्भ में स्थित प्रखर मनश्चेतना से द्वेष रखती है और उसे नष्ट करने का प्रयत्न करती है क्योंकि मनश्चेतना की प्रखरता, सात्विकता होने पर इन्द्रिय - निग्रह से बंधी चेतना महत्त्वहीन हो जाती है ।

४. मनुष्य का जाग्रत चैतन्य अर्थात् कृष्ण चेतना का विकास और विस्तार चाहता है तथा यह विकास एवं विस्तार प्रखर मन के माध्यम से ही सम्भव है । इसीलिए कहानी में कृष्ण को गर्भ के रक्षक के रूप में चित्रित किया गया है ।

५. राजा, राजर्षि तथा क्षत्रिय जैसे शब्द पौराणिक साहित्य में मन तथा बुद्धि की विभिन्न शक्तियों तथा वृत्तियों के प्रतीक हैं । परीक्षित भी एक राजा है, अतः वह प्रखर एवं सात्विक मन का प्रतीक है ।

६. परीक्षित शब्द परि तथा क्षित नामक दो शब्दों से मिलकर बना है । परि का अर्थ है - चारों ओर और क्षित का अर्थ है - फैला हुआ , बिखरा हुआ । मनश्चेतना के प्रखर तथा सात्विक होते हुए भी बुद्धि के स्तर पर चेतना अभी अहंकार के रूप में बिखरी हुई है, अतः परीक्षित नाम सार्थक ही है ।

७. राजा परीक्षित द्वारा सुव्यवस्थित रूप से राज्य का संचालन करना तथा अधर्म रूपी कलियुग के दुष्प्रभावों से राज्य की सर्वथा रक्षा करना मनश्चेतना अथवा मन की प्रखरता एवं सात्विकता को इंगित करता है ।

८. श्रीमद्भागवत में परीक्षित के जन्म के पूर्व के ५ अध्यायों में पाण्डवों की सहृदयता तथा कृष्ण - परायणता का जो विस्तारयुक्त वर्णन किया गया है , उसका उद्देश्य यह बताना है कि मनुष्य के भीतर प्रखर एवं सात्विक मन का जन्म अकस्मात् नहीं होता । पहले इन्द्रियों के तथा मन के स्तर पर सात्विक वृत्तियों/व्यापारों का फैलाव होता है, तभी प्रखर - सात्विक मनश्चेतना जन्म लेती है । कृष्ण - परायण पाण्डव मन की सात्विक वृत्तियों के प्रतीक हैं । महाभारत ग्रन्थ के रहस्यपूर्ण विवेचन में हम यह बात पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं ।

९. एक बार राजा परीक्षित का मृगया के लिए वन में जाना यह इंगित करता है कि प्रखर एवं सात्विक मन से युक्त मनुष्य ही एक न एक दिन अपने तथा जगत् के वास्तविक सत्य को जानने के लिए आतुर हो उठता है और उसकी खोज में प्रयत्नशील होता है । मृगया शब्द मृग् धातु से बना है जिसका अर्थ है - खोज करना ।

१०. वन में जाना परम सत्य की खोज में अन्तर्मुखी होना है । जैसे - जैसे मनुष्य परम सत्य की खोज में आगे बढता जाता है, वैसे - वैसे उसकी तत्सम्बन्धी प्यास भी बढती जाती है । इसे ही कहानी में परीक्षित का भूख - प्यास से व्याकुल होना कहा गया है ।

११. शमीक ( शम+क) ऋषि शम(शान्ति) प्रदान करने वाली चेतना अथवा स्थिति को इंगित करता है । मनश्चेतना जब अपने निवास स्थान मनोमय कोश से निकलकर विज्ञानमय कोश में पहुंचती है, तब उसका साक्षात्कार शम - प्रदायक चेतना अथवा स्थिति से होता है । यही राजा परीक्षित का शमीक ऋषि के आश्रम में पहुंचना है ।

१२. शमीक ऋषि ध्यानावस्था में स्थित थे, इसलिए परीक्षित के आगमन को नहीं जान पाए । विज्ञानमय कोश की शम - प्रदायक चेतना अथवा स्थिति का जाग्रत न होना ही शमीक ऋषि का ध्यानावस्था में स्थित होना है । यह कथन इस तथ्य को भी इंगित करता है कि प्रखर एवं सात्विक मनश्चेतना में यह सामर्थ्य तो विद्यमान होती है कि वह शम - प्रदायक शुद्ध, निर्मल स्थिति के निकट पहुंच जाए, परन्तु वह स्थिति अभी अक्रियाशील अथवा अजाग्रत होने के कारण मनुष्य उससे न तो कोई लाभ उठा पाता है तथा न ही अपनी सत्य प्राप्ति की प्यास को ही तृप्त कर पाता है ।

१३. राजा परीक्षित ने अपमान का अनुभव करके क्रोधयुक्त होकर पास ही पडे मृत सर्प को धनुष की नोक से उठाकर ऋषि के गले में डाल दिया । यह कथन बुद्धि में निहित - मैं कुछ हूं- रूप अहंकार को इंगित करता है । यहां सर्प अहंकार का प्रतीक है और धनुष संकल्प का प्रतीक है । मनुष्य की बुद्धि संकल्प के माध्यम से ही अहंकार का वहन करती है । अर्थात् बुद्धि का स्वरूप ही संकल्पमय है, इसलिए उन संकल्पों में ही अहंकार विद्यमान रहता है ।

१४. शमीक ऋषि के गले में सर्प डालने का अर्थ है - अपने ही भीतर विद्यमान अपनी शान्त चेतना को अपने ही बुद्धिगत अहंकार से ढंक देना ।

१५. मनुष्य का यह अहंकार बिल्कुल ही निरर्थक, प्रयोजन रहित, बेमानी(सम्मान न देने वाला ) होता है, इसलिए कहानी में उसे मृत सर्प कहकर इंगित किया गया है ।

१६. शृङ्ग शब्द का अर्थ है - उच्चता अथवा ऊंचाई । पुत्र शब्द पौराणिक साहित्य में गुण का प्रतीक है । अतः शृङ्गी ऋषि मनुष्य के विज्ञानमय कोश में स्थित शमीक रूपी शान्त चेतना का ही वह गुण है जो प्रखर एवं सात्विक मन रूपी राजा को ऊंचाईयां प्रदान करना चाहता है ।

१७. पौराणिक साहित्य में शाप - प्रदान अनिष्ट करने का सूचक नहीं है । यहां शाप - प्रदाता अनुग्रह युक्त चेतना से युक्त होता है और वह शाप प्राप्त करने वाले का हित चाहता है । ठीक वैसे ही जैसे सन्तान की ताडना के पीछे माता - पिता की अनुग्रहशील चेतना तथा सन्तान की हित भावना निहित होती है । शृङ्गी ऋषि रूपी उच्च चेतना प्रखर एवं सात्विक मन से युक्त किन्तु बुद्धि स्तर पर निहित अहंकार का तक्षण करना चाहती है, जिससे मनुष्य ऊर्ध्व गति कर सके ।

१८. परीक्षित का शुकदेव जी से मिलन और शुकदेव जी द्वारा परीक्षित को भागवत का उपदेश यही सूचित करता है कि व्यष्टि - समष्टि जगत में एक ऐसी अनुपम व्यवस्था विद्यमान है जो पात्रता के आधार पर तदनुरूप साधन भी जnटा देती है ।

In simple language, Parikshit means which is scattered around. There are few vedic mantras which mention the nation of king Parikshit. In one of  these mantras, wife asks husband - what should I offer you in the nation of Parikshit  - curd, or shake, or trickled? Shri Jagannaatha Vedaalamkaara explains this mantra in the way that wife is nature and husband is God. Here curd may mean the matter which has become able to retain the lustur of sun in itself. Shake may mean the matter which has become active due to retention of life forces in itself. Trickled may be explained in the way that first one has to listen the omens which appear intermittantly before him. Then he may be able to hear this voice continuously. Why such type of facts have been mentioned in these mantras becomes clear from the statement of one braahmanic text which says that Parikshit may be either an year or the fire. Year means a particular combination of earth, moon and sun, where each one is able to retain the good qualities of the other. At body level, these will be called speech, mind and life force. The other explaination of Parikshit has been given in another text which says that purification of our senses, Ashwamedha, is Parikshita. This implies that one has to purify his scattered energy to give it the shape of Ashwamedha. The text does not stop here. It says that one who has performed Ashwamedha should be able to travel from grosser to causal worlds and vice versa etc. Let us compare these statements with those of puraanic texts. Bhaagavata puraana explains the etymology of name Pareekshita. When Pareekshita was in mother's womb, he saw that some toe - shaped person was protecting him from the fire of weapon of Ashwatthaamaa. When he came out of the womb of mother, he continued to search that toe - shaped person among the people. Due to this examination, or special search, he was named Pareekshita. This indicates that toe - shaped person may be the same energy which takes place due to formation of an year. 

The story of king Pareekshita indicates that he has the power of becoming extrovert and introvert. This is corroborated by the statement of braahmanic text, where air acquires  the power of entering into gross and fine matter due to decrease in entropy.

First published : 22-08-2008 AD(Bhaadrapada krishna shashthee, Vikrama samvat 2065)

 परीक्षित का वैदिक स्वरूप

- विपिन कुमार

टिप्पणी : शौनकीय अथर्ववेद कुन्ताप सूक्त (२०.१२७) में चार मन्त्रों की संज्ञा पारिक्षितीय है । मन्त्र इस प्रकार हैं -

राज्ञो विश्वजनीनस्य यो देवोऽमर्त्यां अति । वैश्वानरस्य सुष्टुतिमा सुनोता परिक्षितः ।।

परिक्षिन्न: (परिच्छिन्न: ) क्षेममकरोत् तम आसनमाचरन् । कुलायन् कृण्वन् कौरव्य: पतिर्वदति जायया ।।

कतरत् त आ हराणि दधि मन्थां परि श्रुतम् । जाया: पतिं वि पृच्छति राष्ट्रे राज्ञ: परिक्षितः ।।

अभीव स्व: प्र जिहीत यव: पक्व: परो बिलम् । जनः स भद्रमेधते राष्ट्रे राज्ञ: परिक्षितः ।।

          इन चार मन्त्रों से पहले सूक्त २०.१२६ में इन्द्र - वृषाकपि - इन्द्राणी संवाद है जिसमें इन्द्राणी इन्द्र के शिष्य वृषाकपि को अपशब्द कहती है । इस सूक्त की टेक विश्वस्मादिन्द्र उत्तर: है । इसके पश्चात् कुन्ताप सूक्त का आरम्भ नाराशंसी ऋचाओं से होता है ( इदं जना उप श्रुत नरा शंस स्तविष्यते इत्यादि ) । नाराशंसी मन्त्रों के पश्चात् रैभी ऋचाएं हैं ( वच्यस्व रेभ वच्यस्य वृक्षे न पक्वे शकुनः इत्यादि ) । इसके पश्चात् पारिक्षिती ऋचाएं हैं । पारिक्षिती ऋचाओं के पश्चात् कारव्या ऋचाएं हैं ( इन्द्र: कारुमबूबुधदुत्तिष्ठ वि चरा जनम् इत्यादि ) । ऐसा कहा जा सकता है कि प्राणों की प्रतीक नाराशंसी ऋचाएं हैं, वाक् की प्रतीक रैभी ऋचाएं । तब मन की प्रतीक पारिक्षिती ऋचाएं होनी चाहिएं ।

          गोपथ ब्राह्मण २.६.१२ का कथन है कि संवत्सर ही परिक्षित् है, क्योंकि यही सर्व का परिक्षयण करता है ( संवत्सरो वै परिक्षित्, संवत्सरो हीदं सर्वं परिक्षियतीति ) । फिर कहा गया है कि ऐसा भी कहा जाता है कि अग्नि ही परिक्षित् है, क्योंकि अग्नि ही इस सबका परिक्षयण करती है ( अथो खल्वाहु: अग्निर्वै परिक्षित् अग्निर्हीदं सर्वं परिक्षियतीति ) । इसके पश्चात् कहा गया है कि जो कारव्या ऋचाएं हैं, वह राजा परिक्षित् की गाथाएं हैं । इस कथन का तात्पर्य यह है कि जो भी परिश्रित है, जो भी बिखरा हुआ है, उसे संवत्सर का, अथवा अग्नि का रूप देना है । जैसा कि श्रीमती राधा ने इंगित किया है, एक उपाय अश्वत्थामा का है जो सब इन्द्रियों का ब्रह्मास्त्र से निग्रह करता है । दूसरा उपाय यह है कि जो शक्ति बिखरी हुई है, उसका भी सदुपयोग करना है, उसे संवत्सर बनाना है । संवत्सर का अर्थ होता है पृथिवी, सूर्य व चन्द्रमा का परस्पर सहयोग । वैयक्तिक स्तर पर पृथिवी को वाक् कहा जाता है, सूर्य को प्राण और चन्द्रमा को मन । वाक्, प्राण और मन का सहयोग पारिक्षिती ऋचाओं में किस प्रकार प्रकट हुआ है, इसका संकेत श्री जगन्नाथ वेदालंकार द्वारा कुन्ताप सूक्त पर लिखित टीका से मिलता है । इस टीका के अनुसार जाया पति से पूछती है कि परिक्षित् के राष्ट्र में तेरे लिए मैं क्या प्रस्तुत करूं - दधि, मन्थ या परिश्रुत/परिस्रुत । टीका में यह भी संकेत किया गया है कि जाया, पति, दधि,मन्थ आदि के क्या अर्थ हो सकते हैं । टीका के अनुसार जाया प्रकृति है और पति पुरुष है । सामवेद में पृथिवी, सूर्य आदि का सहयोग रथन्तर व बृहत् सामों आदि के रूप में प्रकट हुआ है । जैसा कि बृहत् व रथन्तर सामों के संदर्भ में अन्यत्र कहा जा चुका है, बृहत् साम द्वारा सूर्य अपनी ऊर्जा को पृथिवी में स्थापित करता है । रथन्तर साम द्वारा पृथिवी अपनी सर्वश्रेष्ठ ऊर्जा को सूर्य व चन्द्रमा में स्थापित करती है । श्री जगन्नाथ वेदालंकार की टीका के अनुसार मन्थ का अर्थ है प्राण जो जड पदार्थ का मन्थन कर देते हैं, जड को चेतन बना देते हैं । दधि का अर्थ होता है दधाति, जो आज्य रूपी सूर्य के तेज को धारण करने में समर्थ हो जाता है । परिस्रुत/परिश्रुत का अर्थ रैभी ऋचाओं के आधार पर लिया जा सकता है कि पहले शकुनों का प्रादुर्भाव होता है और फिर श्रुत ज्ञान का । अग्नि को परिक्षित् कहने से तात्पर्य यह हो सकता है कि जैसे अग्नि देवों के लिए हवि का वहन कर सकती है, वैसे ही परिक्षित् ऊर्जा को भी हवि वहन करने में समर्थ बनाया जा सकता है ।

          परिक्षित शब्द का दूसरा रहस्योद्घाटन बृहदारण्यक उपनिषद ३.३.१(शतपथ ब्राह्मण १४.६३.१)में वासुदेव कृत टीका से होता है । इस आख्यान में एक गन्धर्व इस प्रश्न का उत्तर देता है कि लोकों का अंत कौन सा है । इसका उत्तर दिया गया है - क्व पारिक्षिता अभवन् । प्रश्न उठाया गया है कि पारिक्षिता: से क्या अर्थ है ।श्री वासुदेव ब्रह्मभगवत् की टीका के अनुसार - परितो दुरितं क्षीयते येन स परिक्षित् अश्वमेध: । इसका भाषार्थ है कि जिसके द्वारा अपने चारों ओर दुरित या पापों का क्षय होता हो, उसे परिक्षित् या अश्वमेध कहते हैं और पारिक्षिता: अश्वमेध का अनुष्ठान करने वालों को । इसी आख्यान में आगे बताया गया है कि इन्द्र सुपर्ण का रूप धारण कर वायु को सूक्ष्मतम आकाश में प्रवेश करने में समर्थ बनाता है( आख्यान की टीका में सुपर्ण का अर्थ चित अग्नि, न्यून अव्यवस्था वाली अग्नि किया गया है ) । इससे वायु व्यष्टि और समष्टि दोनों में प्रवेश करने में समर्थ बनती है और तब वह पारिक्षितों के लोक तक पहुंच पाती है । इस पूरे आख्यान से यह संकेत मिलता है कि पुराणों के राजा परीक्षित को व्यष्टि और समष्टि दोनों में समान रूप से कल्याणकारी बनना है । समष्टि के रूप में तो राजा परीक्षित अपने राष्ट्र में कलि को भी कल्याणकारी बनाने का प्रयास करता है । लेकिन जब वह व्यष्टि में कल्याणकारी होने का प्रयास करता है तो उसके समक्ष बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं । शमीक ऋषि उसे कोई उत्तर नहीं देते । इस पर परीक्षित धनुष की नोक से मृत सर्प उठाकर शमीक के गले में डाल देते हैं । धनुष की नोक निर्गुण व सगुण समाधियों की संधि का प्रतीक हो सकता है । पौराणिक साहित्य में सर्प धनुष की ज्या/डोरी में रूपान्तरित हो जाता है । इसका अर्थ यह हो सकता है कि परीक्षित व्यष्टिगत साधना का लाभ भी समष्टिगत स्तर तक पहुंचाना चाहते हैं । अन्त में परीक्षित शुकदेव के मुख से भागवत कथा का श्रवण करते हैं और तक्षक सर्प को गले लगाकर अपना जीवन समाप्त कर देते हैं । इसका अर्थ हुआ कि व्यष्टिगत रूप से कल्याण प्राप्त करने पर ही राजा परीक्षित ने अपने समष्टिगत रूप का परित्याग किया ।

          पुराणों में उपलब्ध परीक्षित नाम की निरुक्तियों की ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध परिक्षित् की निरुक्तियों से तुलना रोचक है । महाभारत आश्वमेधिक पर्व ७०.११ के अनुसार

परिक्षीणे कुले यस्माज्जातोऽयमभिमन्युज: । परिक्षिदिति नामस्य भवत्वित्यब्रवीत् तदा ।।

भागवत पुराण १.१२.३० के अनुसार

गर्भे दृष्टमनुध्यायन् परीक्षेत नरेष्विह ( परीक्षित ने गर्भ में देखा कि कोई अंगुष्ठ पुरुष उसकी रक्षा कर रहा है । बाहर आने पर परीक्षित सभी नरों की परीक्षा करता है कि इनमें से वह कौन सा है जिसका दर्शन उसने गर्भ में किया था । इस कारण से उसका नाम परीक्षित(परि - ईक्षित) पडा ) । ऐसा प्रतीत होता है कि पुराणों में अंगुष्ठ पुरुष का उल्लेख परीक्षित के व्यष्टि - समष्टि अथवा संवत्सरात्मक गुण को प्रकट करता है ।

          कौशीतकिब्राह्मणोपनिषद ३ में तथा अन्य स्थलों पर भी निर्देश मिलते हैं कि कर्म की अपेक्षा कर्त्ता पर ध्यान दो । यदि कर्त्ता पुरुष अनुपस्थित है तो हमारी इन्द्रियां विषयों का सेवन नहीं कर सकती । इस कर्त्ता पुरुष को ही अंगुष्ठ पुरुष कहा जा सकता है ।

          बृहदारण्यक उपनिषद में वायु को व्यष्टि और समष्टि में प्रवेश करने की शक्ति प्राप्त होने का जो कथन है, उसमें व्यष्टि और समष्टि शब्दों को विस्तार से समझने की आवश्यकता है । पैङ्गलोपनिषद के अनुसार स्थूल शरीर व्यष्टि - समष्ट्यात्मक है । अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यष्टि स्तर पर प्रकृति में घटनाएं आकस्मिक रूप में, चांस रूप में घटित होती हैं, घटनाओं के घटने में कोई नियम काम नहीं करता । फिर जैसे - जैसे व्यष्टियां समष्टि में बदलती हैं, आकस्मिकता या चांस क्षीण होता जाता है और कार्य - कारण सम्बन्धों का आविर्भाव होता है । फिर कारण शरीर से भी ऊपर उठने पर अंगुष्ठ पुरुष की कारण रूप से कल्पना की जा सकती है । यह उल्लेखनीय है कि पैङ्गलोपनिषद में व्यष्टि देह, व्यष्टि सूक्ष्मशरीर और व्यष्टि कारण शरीर का उल्लेख है । अतः यह अन्वेषणीय है कि व्यष्टि स्तर पर सूक्ष्म व कारण शरीरों की विद्यमानता का आधार क्या है ।

           वाक्, प्राण और मन के सहयोग से संवत्सर का निर्माण करने से पूर्व यह जानना रोचक होगा कि व्यष्टि स्तर पर वाक्, प्राण और मन का सहयोग किस प्रकार होता है । दूसरे शब्दों में, व्यष्टि में समष्टि का प्रवेश कैसे होता है और उसका व्यष्टि पर क्या प्रभाव पडता है । उदाहरण के लिए, यदि हमारा मन कहीं और लगा है तो कानों में ध्वनि सुनाई नहीं देती । कौशीतकिब्राह्मणोपनिषद २.४ का कथन है कि न तो अकेले प्राण से बोला जा सकता है, न अकेले वाक् से । बोलने के लिए वाक् और प्राण का सहयोग आवश्यक है ।

          याज्ञिक कर्मकाण्ड में तीन अग्नियों की स्थापना करनी होती है - आहवनीय, दक्षिणाग्नि और गार्हपत्य अग्नि । इन तीन अग्नियों की तुलना प्राण, मन और वाक् से की जा सकती है या नहीं, यह विचारणीय है । प्राणाग्निहोत्रोपनिषद २.१ का कथन है कि दक्षिणाग्नि की स्थिति हृदय में होती है और गार्हपत्य की नाभि में । दक्षिणाग्नि की व्यष्टि पर सम्यक् प्रकार से हवि को पकाकर गार्हपत्य रूप होकर नाभि पर बैठता है ? अन्यत्र टिप्पणियों में यह उल्लेख किया जा चुका है कि दक्षिणाग्नि का राजा नल नैषध है । पुराणों में राजा नल की कथा में राजा नल अश्व विद्या जानता है लेकिन अक्ष विद्या नहीं जानता जिसके कारण वह अक्ष क्रीडा में अपने भ्राता पुष्कर से हार जाता है । अन्त में अक्ष विद्या प्राप्त करने के पश्चात् वह अपना खोया हुआ राज्य फिर प्राप्त करता है । राजा नल की कथा के संदर्भ में परीक्षित की कथा विचारणीय है । सोमयाग में ऐसा अनुमान है कि दक्षिणाग्नि का स्थान आग्नीध्र नामक ऋत्विज की अग्नि ले लेती है । यह अग्नि यज्ञ वेदी की सीमा पर स्थित होती है - आधी अन्दर, आधी बाहर । इसका अर्थ यह लिया जाता है कि आग्नीध्र ऋत्विज अन्तर्मुखी होना भी जानता है, बहिर्मुखी भी ।

          पहले स्तर पर पांच महाभूत आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी होते हैं जिनसे क्रमशः पांच तन्मात्राओं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध का विकास होता है । डा. फतहसिंह कहा करते थे कि जैन धर्म में जो एकसंज्ञी, द्विसंज्ञी, त्रिसंज्ञी जीवों आदि की मान्यता है, उसे आध्यात्मिक रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है कि समाधि से व्यnत्थान की अवस्था में सबसे पहले एक संज्ञा होती है - शब्द । इसका अर्थ होगा कि अभी चेतना ने केवल एक महाभूत आकाश में प्रवेश किया है जिससे शब्द तन्मात्रा का जन्म हुआ है । फिर व्युत्थान के पुष्ट होने पर दो महाभूतों आकाश और वायु के कारण दो संज्ञाएं शब्द और स्पर्श होते हैं, फिर तीन संज्ञाएं शब्द, स्पर्श और रूप होते हैं । फिर चार संज्ञाएं शब्द, स्पर्श, रूप व रस होते हैं । फिर पांच संज्ञाएं शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध होते हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि समाधि की सर्वोच्च चेतना या प्राण जड जगत में क्रमिक रूप से प्रवेश कर रहे हैं । अतः जब शतपथ ब्राह्मण में श्री वासुदेव द्वारा परिक्षित् की निरुक्ति परितः दुरितं क्षीयते इति परिक्षितः की जाती है तो इसे इसी दृष्टिकोण से समझा जा सकता है कि सर्वोच्च चेतना का जड जगत में प्रवेश कराना ही परीक्षित है । परिक्षित् से पहली अवस्था परिच्छिन्न हो सकती है जिसका संकेत अथर्ववेदीय कुन्ताप सूक्त के पाठभेद से मिलता है । इसका अर्थ होगा कि जड वस्तुएं तब तक परिच्छिन्न अवस्था में हैं जब तक उनमें प्राणों का समावेश नहीं होता । प्राणों का समावेश होने पर वह परिक्षित् की स्थिति होगी । मन्त्र में इसे तम में आसन लगाना(तम आसनमाचरत्) या तम में प्राण की प्रतिष्ठा करना कहा गया है । स्थूल स्तर पर हमारी देह की यही स्थिति है । आत्मा ने इस जड जगत या देह को अपना कुलाय/घोंसला बनाया हुआ है ।

          कौशीतकिब्राह्मणोपनिषद २.८ में समाधि की ओर प्रस्थान का वर्णन है । इस वर्णन के अनुसार पहले जहां - जहां भी वासना है, अग्नि है, उसको बुझाना है, उसके तेज को आदित्य में रूपान्तरित करना है । फिर आदित्य को भी अस्त करना है और उसके तेज को चन्द्रमा में लीन करना है । फिर चन्द्रमा को भी अस्त करना है और उसके तेज को विद्युत में रूपान्तरित करना है । फिर विद्युत का लोप करना है और विद्युत के तेज को वायु में रूपान्तरित करना है । वायु अन्तिम स्थिति है । इसका आध्यात्मिक रूप यह कहा गया है कि पहले वाक् को समाप्त करना है और उसके तेज को चक्षु में लीन करना है । फिर चक्षु को समाप्त करना है और उसके तेज को श्रोत्र में लीन करना है । फिर श्रोत्र को समाप्त करना है और उसके तेज को मन में रूपान्तरित करना है । फिर मन को समाप्त करना है और मन के तेज को प्राण में रूपान्तरित करना है । प्राण अन्तिम स्थिति है । सूर्य को प्राणों का सर्वश्रेष्ठ रूप कहा जाता है, सोम या चन्द्रमा को मन का सर्वश्रेष्ठ रूप कहा जाता है । वाक् का सर्वश्रेष्ठ रूप क्या हो सकता है, यह अन्वेषणीय है । हो सकता है कि यह गौ हो क्योंकि पृथिवी गौ का रूप धारण करती है जिससे ब्रह्माण्ड के सभी प्राणी दुग्ध प्राप्त करते हैं । उसके पश्चात् ही इन तीनों के परस्पर सहयोग के बारे में सोचा जा सकता है । यह वर्णन पुराणों में राजा परीक्षित द्वारा शमीक ऋषि के पास पहुंचने की कथा पर प्रकाश डाल सकता है ।     कौशीतकिब्राह्मणोपनिषद में संवत्सर के अतिरिक्त संवत्सर की पत्नी ऋतु सम्बन्धी वर्णन भी प्राप्त होता है जो इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि प्रकृति की सामान्य स्थिति में भी मन, प्राण और वाक् का सहयोग स्वाभाविक रूप से चल रहा है । इस वर्णन के अनुसार जो प्राणी इस लोक से प्रयाण करते हैं, उनके प्राणों से शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा(चन्द्रमा को मन का उच्च रूप कहा जाता है ) का आप्यायन होता है । फिर कृष्ण पक्ष में वह ऊर्जा पृथिवी पर विभिन्न प्राणियों के प्राणों के रूप में बरसती है । यह चक्र चलता रहता है । आवश्यकता इस बात की है कि इस मर्त्य चक्र से ऊपर उठकर अमर्त्य स्तर को प्राप्त किया जाए, पितृयान से देवयान मार्ग को प्राप्त किया जाए, कार्य - कारण से रहित मोक्ष की स्थिति को प्राप्त किया जाए । कौशीतकिब्राह्मणोपनिषद २.२ के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है कि वाक्, प्राण, मन, चक्षु, श्रोत्र, प्रज्ञा आदि इस योग्य बनने चाहिएं कि उनमें देवत्व का समावेश हो ।

          शतपथ ब्राह्मण १२.३.३.२ के अनुसार यज्ञ को सार्थक, सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि समष्टि में व्यष्टि का प्रवेश कराया जाए । इस कथन के अनुसार सोमयाग में जो ओ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, यज, ये यजामहे, वौषट् नामक व्याहृतियों में जो १७ अक्षरों का प्रयोग होता है, उससे समष्टि में व्यष्टि का प्रवेश होता है । यह व्याहृतियां क्या हैं, इसके संदर्भ में कहा गया है कि ओ श्रावय बोलकर पुरोवात की सृष्टि की जाती है, अस्तु श्रौषट् बोलकर मेघों की सृष्टि की जाती है, यज बोलकर स्तनयित्नु/गर्जन की सृष्टि की जाती है, ये यजामहे बोलकर विद्युत की सृष्टि की जाती है और वौषट् बोलकर वर्षण किया जाता है । वौषट् के संदर्भ में कहा गया है कि सूर्य ही वौ है और षट् ६ ऋतुएं हैं । इसका अर्थ यह हुआ कि किसी प्रकार से पृथिवी रूपी वाक् को वर्षा रूपी दिव्य प्राणों से, दिव्य आनन्द से तृप्त करना है । इसके लिए जिस प्रकार बाह्य जगत में वर्षा से पूर्व घटनाएं घटती हैं, वैसी ही घटनाओं को अपने अन्दर भी घटाना है ।

          चूंकि भागवत पुराण का सर्वप्रथम श्रोता परीक्षित है, इसलिए इसके विभिन्न स्कन्धों में जो घटनाएं वर्णित हैं, उनका सम्बन्ध परीक्षित से होना चाहिए । जैसा कि बृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है, परिक्षित् स्थिति में व्यष्टि और समष्टि दोनों में प्रवेश करने की सामर्थ्य होने पर ही पहुंचा जा सकता है । ऐसा लगता है कि भागवत के प्रत्येक स्कन्ध में इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखा गया है । उदाहरण के लिए, तीसरे स्कन्ध में पहले हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु का आख्यान है जो क्रमशः व्यष्टि और समष्टि से सम्बन्धित हो सकते हैं । फिर वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध समष्टि प्रक्रिया है । फिर देवहूति कर्दम का आख्यान व्यष्टि की घटना है । जहां व्यष्टि का बाहुल्य है, वहां कपिल बनकर सांख्य योग मोक्षप्रदायक हो सकता है । सांख्य योग का अर्थ होगा जहां संख्याएं प्रधान हैं, जहां आकस्मिक घटनाएं प्रधान हैं । चतुर्थ स्कन्ध में वेन के मन्थन से पृथु की उत्पत्ति होती है जो पृथिवी को समतल करता है, पृथिवी गौ का रूप धारण कर लेती है और सभी प्राणी वर्ग उसका दोहन करते हैं । यहां वेन सूर्य का, व्यष्टि स्तर के सूर्य का, प्राण का रूप हो सकता है क्योंकि वेन केवल अपने आपको ही महत्त्वपूर्ण, पूजनीय समझता है । उससे पृथु की उत्पत्ति होती है - प्राण जो समष्टि में व्याप्त होने की सामर्थ्य रखता है । ऐसा पृथु पृथिवी रूपी वाक् को भी व्यष्टि से निकाल कर समष्टि में स्थापित करता है, वाक् को गौ का रूप देता है । फिर स्कन्ध के अन्त में पुरंजनोपाख्यान है जो व्यष्टि से सम्बन्धित है ।

          ऋग्वेद की ऋचाओं १०.६५.८ तथा ३.७.१ में परिक्षितों को पूर्वज और अवर पितर कहा गया है । ऋग्वेद १.१२३.७ में तम को परिक्षित कहा गया है जिसका उषा नाश करती है ।

          नारदपरिव्राजकोपनिषद ८.१ का कथन है - ओमिति ब्रह्मेति व्यष्टि समष्टि प्रकारेण ।