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पुराण विषय अनुक्रमणिका PURAANIC SUBJECT INDEX (From Dvesha to Narmadaa ) Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar
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ध्रुवा : वैदिक साहित्य में ध्रुवा शब्द का सार्वत्रिक रूप से उल्लेख आता है । तैत्तिरीय संहिता १.२.१२.२ में ध्रुवा को उत्तरवेदी कहा गया है । एक स्थान पर ध्रुवा को अन्तर्वेदी कहा गया है । ब्राह्मण ग्रन्थों में प्रायः निम्नलिखित यजु का उल्लेख आता है - 'तया देवतया अङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद' । - शतपथ ब्राह्मण ६.१.२.२८ इत्यादि इसकी व्याख्या में कहा जाता है कि प्राण अङ्गिरा हो सकते हैं और वाक् ध्रुवा । शतपथ ब्राह्मण १०.५.१.३ में उल्लेख है कि यह आत्मा त्रेधा विहित है । इस त्रेधा विहित आत्मा से त्रेधा विहित दैव अमृत प्राप्त किया जाता है । वाक् भी तीन प्रकार की है - स्त्री, नपुंसक और पुमान् । अतः यह सब वाक् द्वारा ही प्राप्त किया जाता है । 'अङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद' यजु में ध्रुवा के स्थान पर ध्रुव: अथवा ध्रुवं पाठ नहीं किया जा सकता । यह वाक् का ही संस्कार करते हैं । लेकिन शतपथ ब्राह्मण ८.१.४.८ में इस कथन का अपवाद मिलता है - 'सुपर्णचिदसि तया देवतया अङ्गिरस्वद् ध्रुव: सीद' कहा गया है कि वाक् दो प्रकार की हो सकती है - आदित्य से निम्न स्थिति की और उच्च स्थिति की । यदि यह आदित्य से निम्न स्थिति की है तो यह मृत्यु की ओर ले जाने वाली है । यदि आदित्य से उच्च स्थिति की है तो अमृत की ओर ले जाने वाली है । विद्या द्वारा यह आदित्य से उच्च स्थिति वाली बनती है । यह वाक् त्रेधा विहित है - ऋक्, यजु और साम । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१.१.१ में नचिकेता इष्टिकाओं की स्थापना के संदर्भ में प्रत्येक इष्टिका के मन्त्र की टेक 'तया देवतयाऽङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद' है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.१२.६.१ में लेखा इष्टकाओं की स्थापना के संदर्भ में भी मन्त्रों की टेक 'तया देवतयाऽङ्गिरस्वद् ध्रुवा सीद' है । इन कथनों से संकेत मिलता है कि जब पृथिवी में किसी प्रकार से विभिन्न देव तत्त्वों की प्रतिष्ठा होती है, तभी वह ध्रुवा कहलाती है( उदाहरणार्थ, गयासुर की यज्ञ हेतु प्रस्तुत देह पर शिला की स्थापना और शिला पर देवों का विराजमान होना आदि) । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.७.१० में आत्मा को ध्रुवा कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.१.२ व ३.३.६.११ में पृथिवी को ध्रुवा कहा गया है । ऋग्वेद १०.१७३ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.४.२.८ आदि में द्यौ व पृथिवीको ध्रुवा कहा गया है । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.९.१ में प्रजा, पुष्टि, धन, द्विपद व चतुष्पद को ध्रुव और वापस न जाने वाले बनाने की कामना की गई है । सोमयाग में तीन पात्रों का उपयोग किया जाता है - जुहू, उपभृत और ध्रुवा । जुहू को द्यौ, अन्तरिक्ष को उपभृत और पृथिवी को ध्रुवा कहा गया है । आहुति देते समय इन तीनों के घृत को एक से अधिक बार एक दूसरे में स्थानांतरित किया जाता है जिसका न्याय ब्राह्मण ग्रन्थों में उपलब्ध है । अग्नि में आहुति संभवतः जुहू नामक पात्र से ही दी जाती है । शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.३ में वाक् को जुहू, मन को उपभृत और चक्षु को ध्रुवा कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण ६.५.२.५ में उखा/उषा नामक पात्र के ध्रुवा होने का कथन है । कहा गया है कि 'उत्थाय बृहतीर्भव । उदु तिष्ठ ध्रुवा त्वम् । शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.२० के अनुसार सदोमण्डप में औदुम्बरी की स्थापना करते समय कहा जाता है 'ध्रुवाऽसि ध्रुवोऽयं यजमानो अस्मिन्नायतने प्रजया भूयात् ।' तैत्तिरीय संहिता ४.४.१२.५ में ध्रुवा को विष्णु - पत्नी कहा गया है । अथर्ववेद १५.१४.१० के अनुसार विष्णु होकर ध्रुवा दिशा में गति की जाती है । पौराणिक कथाओं में तो विष्णु (यज्ञ)वराह बन कर ध्रुवा दिशा/पृथिवी का अन्वेषण करते हैं । यह विचारणीय है कि ध्रुव की जिन पत्नियों का उल्लेख पुराणों में किया गया है(भ्रमि और इला), क्या वह भी ध्रुवा का रूप हो सकती हैं? ऋग्वेद १०.१७३.४ के अनुसार - 'ध्रुवा द्यौर्ध्रुवा पृथिवी ध्रुवास: पर्वता इमे ।' इसका तात्पर्य यह है कि ध्रुवा स्थिति केवल पृथिवी तक ही सीमित नहीं है, जैसा कि ध्रुवा दिशा के आधार पर प्रतीत होता है, अपितु द्यौ भी ध्रुवा बन सकती है । दूसरी ओर, सोमयाग में ध्रुवा, उपभृत और जुहू को क्रमशः पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्यौ का प्रतीक कहा गया है । प्रश्न यह है कि व्यावहारिक रूप में ध्रुवा का क्या अर्थ हो सकता है । इसका संकेत इस कथन( अथर्ववेद १२.३.५९ तथा १८.४.५-६) से मिलता है कि ध्रुवा स्थिति में हमें पक्व अन्न की, अन्नाद्य की प्राप्ति होनी चाहिए ( यह उल्लेखनीय है कि ध्रुव की कथा में ध्रुव अपने तप का आरम्भ मधुवन में करता है ) । भौतिक पृथिवी से जो अन्न हमें प्राप्त होता है, वह अन्नाद्य, अन्नों में सर्वश्रेष्ठ नहीं है । वह पाशों से, ग्रन्थियों से बंधा हुआ होता है । इस तथ्य को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जो भोजन हम करते हैं, वह या तो स्वाद रहित हो सकता है या स्वादु हो सकता है । स्वादिष्ट भोजन के भी बहुत से स्तर हो सकते हैं । यदि भोजन स्वादरहित है तो क्यों है ? उसका उत्तर यह है कि उस भोजन के अवयव हमारी देह के सूक्ष्म तन्तुओं को उत्तेजित नहीं करते । यदि उसी भोजन का कृत्रिम रूप से परिष्कार किया जाए तो वह स्वादिष्ट बन जाता है । स्वाद रहित भोजन पृथिवी की स्थिति है । द्यौ स्वादिष्ट भोजन का स्थान है । इनके बीच में अन्तरिक्ष की स्थिति है । पृथिवी का भोजन स्वादरहित क्यों है, इसका उत्तर, जैसा कि पयः और वायु शब्द की टिप्पणी में भी कहा जा चुका है, इस आधार पर दिया जा सकता है कि पृथिवी में गुरुत्वाकर्षण बल की प्रधानता है और पृथिवी पर जो ओषधियां उत्पन्न होती हैं, उनमें तृण की प्रधानता होती है । तृण अथवा तृण जैसे काष्ठ को आधुनिक विज्ञान की भाषा में प्रतिक्रिया काष्ठ कहा जाता है । ऐसी काष्ठ का निर्माण इसलिए होता है कि ओषधि रूपी जीव को ऊपर की ओर वर्धन में पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण का विरोध करना पडता है । इस विरोध के फलस्वरूप वह प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करता है । श्रीमती राधा का विचार है कि पृथिवी में जो गुरुत्वाकर्षण है, वह प्राणियों में अहंकार के रूप में, पाप के रूप में प्रकट हुआ है । इस प्रकार, जिस ऊर्जा से अन्न में स्वाद की उत्पत्ति हो सकती थी, उसका व्यय प्रतिक्रिया काष्ठ बनाने में हो जाता है । पृथिवी से ऊपर अन्तरिक्ष की स्थिति है । कहा गया है कि अन्तरिक्ष वयः द्वारा दृढ बनता है । वयः/पक्षी अन्तरिक्ष में बिना किसी आलम्बन के तिर्यक् रूप में उडते रहते हैं । आज के भौतिक विज्ञान के युग में वयः की स्थिति को सैटीलाइट के माध्यम से समझ सकते हैं । सैटीलाइट पृथिवी की कक्षा में इस प्रकार से स्थापित हो जाते हैं कि वह पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति का संतुलन कर लेते हैं और नीचे नहीं गिरते । जो तथ्य वैदिक युग में वयः के माध्यम से समझाया गया, उसी को आज के युग में हम सैटीलाइट के माध्यम से समझ सकते हैं । इससे अगली स्थिति द्युलोक की है जहां गुरुत्वाकर्षण शक्ति समाप्त हो जाती है और ऊर्ध्व दिशा में गति हो सकती है । इसको आज के युग के अन्तरिक्ष यानों के माध्यम से समझा जा सकता है जिनका उपयोग चन्द्रमा आदि की यात्रा के लिए किया जाता है । ऋग्वेद २.५.४ में सोमयाग में प्रशास्ता नामक ऋत्विज के व्रतों को ध्रुव विशेषण दिया गया है जो वयः की भांति रोहण करते हैं ।
ध्रुवा संदर्भ *यो मा वाचा मनसा दुर्मरायुर्हृदारातीयादभिदासदग्ने। इदमस्य चित्तमधरं ध्रुवाया अहमुत्तरो भूयासमधरे मत्सपत्नाः। ध्रुवासि धरणी धनस्य पूर्णा जागतेन छन्दसा विश्ववेदाः। अव्यथमाना यज्ञमनुयच्छस्व सुनीती यज्ञं नयास्युप देवान्वैश्वदेवेन शर्मणा दैव्येनेति ध्रुवाम्। - आप.श्रौ.सू. 4.7.2
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