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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Dvesha to Narmadaa )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Dwesha - Dhanavati ( words like Dwesha,  Dvaipaayana, Dhana / wealth, Dhananjaya, Dhanada etc.)

Dhanaayu - Dhara ( Dhanu / bow, Dhanurveda / archery, Dhanusha / bow, Dhanushakoti, Dhanyaa,  Dhanvantari, Dhara etc.)

Dhara - Dharma ( Dharani, Dharaa, Dharma etc.)

Dharma - Dharmadatta ( Dharma, Dharmagupta, Dharmadatta etc.)

Dharmadhwaja - Dhaataa/Vidhaataa ( Dharmadhwaja, Dharmaraaja, Dharmasaavarni, Dharmaangada, Dharmaaranya, Dhaataki, Dhaataa, Dhaaataa - Vidhaataa etc.)

Dhaatu - Dhishanaa ( Dhaataa - Vidhaataa, Dhaatu / metal, Dhaatri, Dhaanya / cereal, Dhaarnaa, Dhaarni, Dhaaraa, Dhishanaa etc.)

Dhishanaa - Dhuupa (Dhee / intellect, Dheeman, Dheera,  Dheevara, Dhundhu, Dhundhumaara, Dhuupa etc.)

Dhuuma - Dhritaraashtra  ( Dhuuma / smoke, Dhuumaketu, Dhuumaavati, Dhuumra, Dhuumralochana, Dhuumraaksha, Dhritaraashtra etc.)

Dhritaraashtra - Dhenu ( Dhriti, Dhrista, Dhenu / cow etc.)

Dhenu - Dhruva ( Dhenu, Dhenuka, Dhaumya, Dhyaana / meditation, Dhruva etc. )

Dhruvakshiti - Nakshatra  ( Dhruvasandhi, Dhwaja / flag, Dhwani / sound, Nakula, Nakta / night, Nakra / crocodile, Nakshatra etc.)

Nakshatra - Nachiketaa ( Nakshatra, Nakha / nail, Nagara / city, Nagna / bare, Nagnajit , Nachiketa etc.)

Nata - Nanda (  Nata, Nataraaja, Nadvalaa, Nadee / river, Nanda etc.)

Nanda - Nandi ( Nanda, Nandana, Nandasaavarni, Nandaa, Nandini, Nandivardhana, Nandi etc.)

Napunsaka - Nara (  Nabha/sky, Nabhaga, Namuchi, Naya, Nara etc. )

Naraka - Nara/Naaraayana (Nara / man, Naraka / hell, Narakaasura, Nara-Naaraayana etc.) 

Naramedha - Narmadaa  (  Naramedha, Naravaahanadutta, Narasimha / Narasinha, Naraantaka, Narishyanta, Narmadaa etc. )

 

 

धर्म

एकः धर्मसंज्ञकः सामः अस्ति, अन्यः विधर्मसंज्ञकः। विधर्मसाम्नि तृचायाः पदः अस्ति - शिशुं जज्ञानं हरिं मृजन्ति। अत्र यः हरिसंज्ञकः सोमः अस्ति, तस्य मार्जनस्य निर्देशमस्ति। पुराणेषु सार्वत्रिकरूपेण (गरुडपुराण १.२२३.५)  उल्लेखः अस्ति यत् कृतयुगे हरिः श्वेतवर्णात्मकः अस्ति, त्रेतायां रक्तवर्णः, द्वापरे पीतः, कलियुगे कृष्णः।

सामवेदे धर्मस्य रूपौ धर्मविधर्मौ स्तः। शिवपुराणे १.१७.८४ उल्लेखः अस्ति यत् महिषारूढं धर्मं तीर्त्वा वृषभारूढं धर्मं प्राप्नुवन्ति। स्कन्दपुराणे ३.१.२५ वत्सनाभऋषेः वर्षणतः रक्षणाय धर्मः महिषरूपं गृह्णाति।

 

टिप्पणी ऋग्वेद की ऋचाओं की व्याख्या में सायणाचार्य द्वारा सार्वत्रिक रूप से धर्म की निरुक्ति धृ धातु के आधार पर धारयति इति धर्मः रूप में की गई है। आधुनिक विज्ञान के लिए यह सबसे बडी चुनौती है कि जड पदार्थ में अतिरिक्त ऊर्जा का धारण कैसे किया जाए। आज विद्युत का जनन तो करना सरल है, किन्तु उसका धारण करना कठिन बना हुआ है। ऋग्वेद की ऋचाओं में ऊर्जा धारण के कुछ उल्लेख पाए जाते हैं जिनमें से एक है अन्न में ऊर्जा का धारण

पि॒तुं नु स्तो॑षं म॒हो ध॒र्माणं तवि॑षीम्। यस्य॑ त्रि॒तो व्योज॑सा वृ॒त्रं विप॑र्वम॒र्दय॑त्।। - ऋ. १.१८७.१

अर्थात् हम उस पिता रूप पालक अन्न की स्तुति करते हैं जो तविषी नामक बल का धर्म है, अथवा तविषी को धारण करता है।

     लेकिन ऋग्वेद १.२२.१८ के आधार पर यह कहा जा सकता है कि धर्म शब्द केवल ऊर्जा को धारण करने मात्र तक सीमित नहीं है

त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः। अतो॒ धर्मा॑णि धा॒रय॑न्।। - ऋ. १.२२.१८

इस ऋचा में धर्मों को धारण करने के लिए विष्णु द्वारा तीन पद चंक्रमण की अनिवार्यता प्रदर्शित की गई है। जैसा कि पुराण कथाओं में प्रसिद्ध है, विष्णु ने तीन पदों द्वारा पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक का मापन किया था। इस ऋचा में धर्म और धारण, दोनों शब्द प्रकट हुए हैं। यदि धर्म का अर्थ केवल धारण करना ही होता तो ऐसा न होता। यह उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद ८.५२.३ के अनुसार विष्णु ने यह चंक्रमण मित्र के धर्मों के अनुसार किया-

यस्मै॒ विष्णु॒स्त्रीणि॑ प॒दा वि॑चक्र॒म उप॑ मि॒त्रस्य॒ धर्म॑भिः।।

     पुरुष सूक्त की प्रसिद्ध ऋचा है-

य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्। ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः।। - ऋ. १०.९०.१६/१.१६४.५०

इस ऋचा के अनुसार देवों ने यज्ञ से यज्ञ का यजन किया। वह सबसे पहले(सायण के अनुसार सबसे प्रकृष्टतम) धर्म हुए। वही नाक नामक स्वर्ग लोक को प्राप्त करते हैं जहां पहले साध्य देव होते हैं। इस ऋचा के अनुवाद में विरोधाभास हो रहा है। एक ओर तो यज्ञ शब्द एकवचन में प्रकट हो रहा है, दूसरी ओर धर्म के लिए बहुवचन का प्रयोग किया जा रहा है। ऐसा नहीं हुआ कि यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः सः धर्मः प्रथमो आसीत्। ऋचा के दूसरे पद में साध्यों का देवों के रूप में उल्लेख किया जा रहा है। यह दूसरा विरोधाभास है। पहले प्रथम विरोधाभास की ओर ध्यान देते हैं। प्रथम पद के समरूप पद ऋग्वेद में  अन्यत्र भी प्रकट हुए हैं, जैसे

उ॒क्षाणं॒ पृश्नि॑मपचन्त वी॒रास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्।। - ऋ. १.१६४.४३

इस ऋचा के अनुसार वीरों ने उक्षा पृश्नि का पाचन किया। वह प्रथम धर्म थे। डा. फतहसिंह के अनुसार पृश्नि चितकबरे को कहते हैं। इस पृथिवी पर जो भी रूप दिखाई देता है, वह चितकबरा है, टुकडों में बंटा हुआ है। मरुद्गण को पृश्नि पुत्र कहा जाता है। दूसरे शब्दों में दिति। इस पृश्नि या दिति को पकाकर अदिति बनाना है। तब धर्म प्रकट होंगे। कर्मकाण्ड में पृश्नि गौ के प्रत्येक अंग को पकाने के लिए उस-उस अंग के आदर्श रूप की कल्पना की जाती है। यही अध्यात्म का पकाना है। फिर वह अंग ऊर्जा को धारण करने में समर्थ होगा(अंगों के आदर्श रूप की कल्पना हेतु अन्त्येष्टि दीपिका नामक पुस्तक में वृषोत्सर्ग करते समय वृष के प्रत्येक अंग के लिए सामों का कल्पन किया गया है। वैदिक साहित्य ऐसे उदाहरणों से भरा पडा है। उदाहरण के लिए, चक्षुओं की पराकाष्ठा सूर्य और चन्द्र बनने में है)।

     पुरुष सूक्त की ऋचा के दूसरे पद वाले विरोधाभास के संदर्भ में, ऐतरेय ब्राह्मण १.१६ का कथन है कि छन्दांसि वै साध्या देवाः। छन्दों के विषय में कहा जाता है कि जिस वस्तु को छन्द से आच्छादित कर दिया जाता है, उससे ऊर्जा का क्षय नहीं होता। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि धर्मों में भी छन्दों का कोई गुण विद्यमान है जो धर्मों में संगृहीत ऊर्जा के क्षय को रोकता है। पुराणों की कथाओं में तो सार्वत्रिक रूप से शाप के कारण अक्षय धर्म का चार युगों में क्षय होता दिखाया गया है। वैदिक साहित्य के आधार पर इसका निर्णय किया जा सकता है कि धर्म कब अक्षय होता है, कब क्षययुक्त। शुक्ल यजुर्वेद २.३/शतपथ ब्राह्मण १.३.४.४ के अनुसार-

मित्रावरुणौ त्वोत्तरतः परिधत्तां ध्रुवेण धर्मणा विश्वस्यारिष्ट्यै यजमानस्य परिधिरस्यग्निरिड ऽ ईडितः।

इसी प्रकार शुक्ल यजुर्वेद ५.२७/शतपथ ब्राह्मण ३.६.१.१६ में यज्ञ में औदुम्बरी स्थापना के संदर्भ में कहा गया है

-         - - - द्युतानस्त्वा मारुतो मिनोतु मित्रावरुणौ ध्रुवेण धर्मणा।

इन उल्लेखों से संकेत मिलता है कि जब धर्म के साथ केवल मित्र अथवा वरुण का सम्बन्ध होगा तब वह अक्षय या ध्रुव नहीं होगा। जब मित्र और वरुण दोनों सम्बद्ध होंगे, तभी धर्म ध्रुव बनेगा। वरुण का कार्य पापों का नाश करना होता है। वरुण को धर्मणस्पति कहा गया है(शतपथ ब्राह्मण ५.३.३.९)-

अथ मित्राय सत्याय नाम्बानां चरुं निर्वपति। - - - - -अथ वरुणाय धर्मपतये वारुणं यवमयं चरुं निर्वपति। तदेतं वरुण एव धर्मपतिर्धर्मस्य पतिं करोति। परमता वै सा यो धर्मस्य पतिरसत्।

 

कृत

त्रेता

द्वापर

कलि

गरुड १.२१५.५/१.२२३.५

सत्य, दान, तप, दया

सत्य, दान, दया

 

 

देवीभागवत ४.४.१४

सत्य, शौच, दया, दान

 

 

 

भागवत १.१७.२४

तप, शौच, दया, सत्य

 

 

सत्य

शिव ७.२.१०.३०

ज्ञान, क्रिया, चर्या, योग

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

      
 

 

पुराण कथाओं में सार्वत्रिक रूप से क्षययुक्त धर्म के चार पादों का उल्लेख किया गया है। कृतयुग में धर्म रूप वृषभ के चार पाद दान, तप, दया और सत्य हैं। कृतयुग समाप्त होने पर तप नामक पाद का लोप हो जाता है। कलियुग में केवल सत्य पद शेष रह जाता है। पुराणों के इन चार पादों का मूल तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.२.७.३ का निम्नलिखित संदर्भ है-

ध्रु॒वम॑सि पृथि॒वीं दृँ॒हेत्या॑ह। पृ॒थि॒वीमे॒वैतेन॑ दृँहति। ध॒र्त्रम॑स्य॒न्तरि॑क्षं दृँ॒हेत्या॑ह। अ॒न्तरि॑क्षमे॒वैतेन॑ दृँहति। ध॒रुण॑मसि॒ दिवं॑ दृँ॒हेत्या॑ह। दिव॑मे॒वैतेन॑ दृँहति। धर्मा॑ऽसि॒ दिशो॑ दृँ॒हेत्या॑ह। दिश॑ ए॒वैतेन॑ दृँहति।

 इस कथन से संकेत मिलता है कि एक तो ऊर्ध्वमुखी साधना का मार्ग है जिसमें पृथिवी, अन्तरिक्ष और द्युलोक का मापन किया जाता है। इस साधना के पद ध्रुव, धर्त्र और धरुण हैं। दूसरा चतुर्मुखी साधना का मार्ग है जिसमें दिशाओं का मापन किया जाता है। इस मार्ग को धर्म कहा गया है। स्कन्द पुराण ३.२.५.२२ में धर्म के संचिनुयन की तुलना शृङ्गवान् द्वारा वल्मीक के चिनुयन से की गई है। वल्मीक का अर्थ होता है अपने चारों ओर वर्म का, कवच का निर्माण कर लेना, अपने सभी अंगों में देवताओं को स्थान दे देना जिससे वह हमारे कवच बन जाएं। स्कन्द पुराण के कथन में कहा गया है कि यह कार्य शृङ्गवान् को करना है। इसका अर्थ हुआ कि पहले कोई विशेष अनुभूति, कोई रोमांच होना चाहिए और फिर उस रोमांच का प्रभाव सारे शरीर पर पडना चाहिए, वह रोमांच धर्म या वल्मीक बन जाना चाहिए जिससे हमारे सारे प्राणों की रौद्रता समाप्त हो जाए। तैत्तिरीय आरण्यक के निम्नलिखित कथन से इस अनुमान पर और प्रकाश पडता है-

धर्मा॑ऽसि सु॒धर्मा मे॑ न्य॒स्मे। ब्रह्मा॑णि धारय। क्ष॒त्त्राणि॑ धारय। विशं॑ धारय। नेत्त्वा॒ वातः॑ स्क॒न्दया॑त्। तै.आ. ४.१०.२

यह कथन महावीर नामक प्रवर्ग्य पात्र के संदर्भ में है। इस कथन में ब्रह्म, क्षत्र और विशः को धारण करने का निर्देश है। साथ ही धर्म को सुधर्म भी कह दिया गया है। यह संदिग्ध स्थिति बन जाती है कि क्या धर्म ब्रह्म, क्षत्र और विशः को धारण करने के पश्चात् ही सुधर्म बनेगा ?  धर्म के संदर्भ में उपरोक्त कथन निम्नलिखित सुब्रह्मण्या आह्वान से तुलनीय हैं जिसके बारे में कहा गया है कि इसके द्वारा ब्रह्म को सुब्रह्म बनाया जाता है-

सासि सुब्रह्मण्ये तस्यास्ते पृथिवी पादः। सासि सुब्रह्मण्ये तस्यास्ते अन्तरिक्षं पादः। सासि सुब्रह्मण्ये तस्यास्ते द्यौः पादः। सासि सुब्रह्मण्ये तस्यास्ते दिशः पादः। परोरजास्ते पंचमः पादः।

भागवत पुराण में कलियुग में धर्म के एकमात्र सत्य पद के शेष रहने का उल्लेख है। कलियुग में धर्म का सत्य पद क्या हो सकता है, इसका अनुमान कलि अवस्था में द्यूत की स्थिति तथा द्यूत/अनृत से ऊपर उठकर सत्य की स्थिति से लगाया जा सकता है। तप क्या हो सकता है, इस संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १४.२.२.२९ में प्रवर्ग्य/महावीर/सूर्य को तप के फलस्वरूप उत्पन्न धर्म कहा गया है

अथ प्राङिवोदङुत्क्रामति। धर्माऽसि सुधर्मा इति। एष वै धर्मः। य एष तपति। एष हीदं सर्वं धारयति। एतेनेदं सर्वं धृतम्। एष उ प्रवर्ग्यः। - - - अथ खरे सादयति- अमेन्यस्मे नृम्णानि धारय - इति।

पद्म पुराण में २.१२.४८ में अत्रि-पुत्रों दत्तात्रेय व दुर्वासा के सदा तप में स्थित रहने तथा धर्म की मूर्ति के एकमात्र द्रष्टा होने का उल्लेख है।

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे श्रीमद् भगवद्गीता का आरम्भ निम्नलिखित श्लोक से होता है

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। मामका पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय॥

इस श्लोक में धर्मक्षेत्र क्या होता है, यह समझना आवश्यक है। स्कन्द पुराण ३.२ धर्मारण्य खण्ड है। स्कन्द पुराण ३.२.४ में धर्मारण्य में क्षेत्र की स्थापना का वर्णन है। अतः क्षेत्र की स्थापना से पूर्व अरण्य की स्थिति होती है।

 

अन्य संदर्भ

*कपालोपधानम् ध्रु॒वम॑सि पृथि॒वीं दृँ॒हाऽऽयु॑र्दृँह प्र॒जां दृँ॑ह सजा॒तान॒स्मै यज॑मानाय॒ पर्यू॑ह ध॒र्त्रम॑स्य॒न्तरि॑क्षं दृँह प्रा॒णं दृँ॑हापा॒नं दृँ॑ह सजा॒तान॒स्मै यज॑मानाय॒ पर्यू॑ह ध॒रुण॑मसि॒ दिवं॑ दृँह॒ चक्षु॑र्दृँह॒ श्रोत्रं॑ दृँह सजा॒तान॒स्मै यज॑मानाय॒ पर्यू॑ह॒ धर्मा॑सि॒ दिशो॑ दृँह॒ योनिं॑ दृँ॑ह प्र॒जाँ दृँ॑ह सजा॒तान॒स्मै यज॑मानाय॒ पर्यू॑ह॒ तै.सं. १.१.७.१

*प्रेति॑रसि॒ धर्मा॑य त्वा॒ धर्मं॑ जि॒न्वेत्या॑ह मनु॒ष्या॑ वै धर्मो॑ मनु॒ष्ये॑भ्य ए॒व य॒ज्ञं प्राऽऽह तैत्तिरीय संहिता ३.५.२.२

*शिशुमारस्य स्वरूपं-

यस्मै॒ नम॒स्तच्छिरो॒ धर्मो॑ मू॒र्धानं॑ ब्र॒ह्मोत्त॑रा॒ हनु॑र्य॒ज्ञोऽध॑रा॒ - - - - तै.आ. २.१९.१

*महावीरस्य संस्काराः- वृष्णो॒ अश्व॑स्य नि॒ष्पद॑सि। वरु॑णस्त्वा धृ॒तव्र॑त॒ आधू॑पयतु। मि॒त्रावरु॑णयोर्ध्रु॒वेण॒ धर्म॑णा। - तै.आ. ४.३.१

*दि॒वस्त्वा॑ पर॒स्पायाः॑। अ॒न्तरि॑क्षस्य त॒नुवः॑ पाहि। पृ॒थि॒व्यास्त्वा॒ धर्म॑णा। व॒यमनु॑क्रामाम सुवि॒ताय॒ नव्य॑से। ब्रह्म॑णस्त्वा पर॒स्पायाः। क्ष॒त्त्रस्य॑ त॒नुवः॑ पाहि। वि॒शस्त्वा॒ धर्म॑णा। व॒यमनु॑क्रामाम सुवि॒ताय॒ नव्य॑से। प्रा॒णस्य॑ त्वा पर॒स्पायै॑। चक्षु॑षस्त॒नुवः॑ पाहि। श्रोत्र॑स्य त्वा॒ धर्म॑णा। व॒यमनु॑क्रामाम सुवि॒ताय॒ नव्य॑से। - तै.आ. ४.११.३

*एह॒ श्रीश्च॒ ह्रीश्च॒ धृति॑श्च॒ तपो॑ मे॒धा प्र॑ति॒ष्ठा श्र॒द्धा स॒त्यं धर्म॑श्चै॒तानि मोत्ति॑ष्ठन्त॒म् अनूत्ति॑ष्ठन्तु॒ मा माँ॒ श्रीश्च॒ ह्रीश्च॒ धृति॑श्च॒ तपो॑ मे॒धा प्र॑ति॒ष्ठा श्र॒द्धा स॒त्यं धर्म॑श्चै॒तानि॑ मा॒ मा हा॑सिषुः तै.आ. ४.४२.५

*मृतक संस्कार सूर्यं॑ ते॒ चक्षु॑र्गच्छतु॒ वात॑मा॒त्मा द्यां च॒ गच्छ॑ पृथि॒वीं च॒ धर्म॑णा। अ॒पो वा॑ गच्छ॒ यदि॒ तत्र॑ ते हितमोष॑धीषु॒ प्रति॑तिष्ठा॒ शरी॑रैः। - तै.आ. ६.१.४/६.७.३

*सत्यान्न प्रम॑दित॒व्यम्। धर्मान्न प्रम॑दित॒व्यम्। - - तै.आ. ७.११.१

*अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकि॑त्सा वा॒ स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः॑ संम॒र्शिनः। युक्ता॑ आयु॒क्ताः। अलूक्षा॑ धर्मकामाः॒ स्युः। यथा ते॑ तत्र॑ वर्ते॒रन्। तथा तत्र॑ वर्ते॒थाः। - तै.आ. ७.११.४

*ध॒र्म इति॒ धर्मेण॒ सर्वमि॒दं परिगृ॑हीतं ध॒र्मान्नाति॑दु॒श्चरं॒ तस्मा॑द्ध॒र्मे र॑मन्ते तै.आ. १०.६२.१

*ध॒र्मो विश्व॑स्य॒ जग॑तः प्रति॒ष्ठा लो॒के ध॒र्मिष्ठं॑ प्र॒जा उ॑पस॒र्पन्ति॑ ध॒र्मेण॑ पा॒पम॑प॒नुद॑ति ध॒र्मे स॒र्वं प्रति॑ष्ठितं॒ तस्मा॑द्ध॒र्मं प॑रमं॒ वद॑न्ति तै.आ. १०.६३.१

*बलिहरणकर्मणि विनियुक्ता मन्त्राः-

धर्मा॑य॒ स्वाहा॑। अध॑र्माय॒ स्वाहा॑। - - - - तै.आ.परि. ६७

*द्वितीय स्तोमभागमन्त्रः प्रेतिरसि धर्म्मणे त्वा धर्म्मं जिन्व सवितृप्रसूताबृहस्पतये स्तुत। - ताण्ड्य ब्रा. १.९.२

*धर्म्म भवति धर्म्मस्य धृत्यै। - ताण्ड्य ब्रा. १४.११.३४

*विधर्म्म भवति धर्म्मस्य विधृत्यै। ताण्ड्य ब्रा. १५.५.३१

 

धर्म साम-

पवस्व सोम महान्त्समुद्रः पिता देवानां विश्वाभि धाम। शुक्रः पवस्य देवेभ्यस्सोम दिवे पृथिव्यै शञ्च प्रजाभ्यः। दिवो धर्तासि शुक्रः पीयूषस्सत्ये विधर्मन्वाजी पवस्व।।

विधर्म साम-

पवस्य सोम महे दक्षायाश्वो न निक्तो वाजी धनाय। प्र ते सोतारो रसं मदाय पुनन्ति सोमं महे द्युम्नाय। शिशुञ्जज्ञानँ हरिं मृजन्ति पवित्रे सोमन्देवेभ्य इन्दुम्।।

 

प्रथम लेखन- ५-९-२०११ई.( भाद्रपद शुक्ल अष्टमी, विक्रम संवत् २०६८), अन्तिम संशोधन : १९-५-२०१२ई.(ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, विक्रम संवत् २०६९)