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पुराण विषय अनुक्रमणिका

PURAANIC SUBJECT INDEX

(From Dvesha to Narmadaa )

Radha Gupta, Suman Agarwal & Vipin Kumar

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Dwesha - Dhanavati ( words like Dwesha,  Dvaipaayana, Dhana / wealth, Dhananjaya, Dhanada etc.)

Dhanaayu - Dhara ( Dhanu / bow, Dhanurveda / archery, Dhanusha / bow, Dhanushakoti, Dhanyaa,  Dhanvantari, Dhara etc.)

Dhara - Dharma ( Dharani, Dharaa, Dharma etc.)

Dharma - Dharmadatta ( Dharma, Dharmagupta, Dharmadatta etc.)

Dharmadhwaja - Dhaataa/Vidhaataa ( Dharmadhwaja, Dharmaraaja, Dharmasaavarni, Dharmaangada, Dharmaaranya, Dhaataki, Dhaataa, Dhaaataa - Vidhaataa etc.)

Dhaatu - Dhishanaa ( Dhaataa - Vidhaataa, Dhaatu / metal, Dhaatri, Dhaanya / cereal, Dhaarnaa, Dhaarni, Dhaaraa, Dhishanaa etc.)

Dhishanaa - Dhuupa (Dhee / intellect, Dheeman, Dheera,  Dheevara, Dhundhu, Dhundhumaara, Dhuupa etc.)

Dhuuma - Dhritaraashtra  ( Dhuuma / smoke, Dhuumaketu, Dhuumaavati, Dhuumra, Dhuumralochana, Dhuumraaksha, Dhritaraashtra etc.)

Dhritaraashtra - Dhenu ( Dhriti, Dhrista, Dhenu / cow etc.)

Dhenu - Dhruva ( Dhenu, Dhenuka, Dhaumya, Dhyaana / meditation, Dhruva etc. )

Dhruvakshiti - Nakshatra  ( Dhruvasandhi, Dhwaja / flag, Dhwani / sound, Nakula, Nakta / night, Nakra / crocodile, Nakshatra etc.)

Nakshatra - Nachiketaa ( Nakshatra, Nakha / nail, Nagara / city, Nagna / bare, Nagnajit , Nachiketa etc.)

Nata - Nanda (  Nata, Nataraaja, Nadvalaa, Nadee / river, Nanda etc.)

Nanda - Nandi ( Nanda, Nandana, Nandasaavarni, Nandaa, Nandini, Nandivardhana, Nandi etc.)

Napunsaka - Nara (  Nabha/sky, Nabhaga, Namuchi, Naya, Nara etc. )

Naraka - Nara/Naaraayana (Nara / man, Naraka / hell, Narakaasura, Nara-Naaraayana etc.) 

Naramedha - Narmadaa  (  Naramedha, Naravaahanadutta, Narasimha / Narasinha, Naraantaka, Narishyanta, Narmadaa etc. )

 

 

Story of Dhruva

Story of Dhruva

Story of Dhruva

Dhruva(Stability of Mind)

-         Radha Gupta

In the fourth section(skandha) of Shrimad Bhaagavatam, there is a story of Dhruva narrated in five chapters, from 8th to 12th. The story is related to the stability of mind which describes it’s origin and development in a holistic manner. The story tells that a lower mind never produces stability. Only a higher mind with a great desire of development produces stability.

      This higher mind with a great desire of development has two powers. First, inspired from the above desire, a person dwells in acquiring knowledge and starts liking virtual things. His interest shifts from materiality to spirituality. This shift of interest is really great but unfortunately the feeling of this greatness makes him egoistic. This ego becomes an obstacle in this development and his progress diminishes until he restarts his search and enters in the realm of positivity.

      Secondly, being inspired from the above desire he focuses himself in good conduct. He attentively uses his acquired knowledge in actions. Therefore he lives in positive thoughts, has a great faith in God, believes in the order of universe, respects his laws and accepts everything equally good or bad, success or failure, profit or loss. This high conduct originates stability automatically. Stability means leading happy life without loosing balance of mind.

      In the earlier stages of this stability, a person sometimes flickers but as soon as he approaches towards his right conduct, stability again develops. The story discloses one important aspect for the development of stability. If a person really wishes to attain stability, there is a longing for it, then his own thought power brings him fortune. The waves of his strong thought travel in the existence, react with other similar thought waves, become stronger and come back to the transmitter to fulfill his desire.

      The story also says that only a stable mind has the capability to join with soul or self. On joining with soul, a stream of bliss, peace and knowledge starts flowing in a person’s life which is the ultimate goal.

 

First published : 11-1-2009(Maagha krishna pratipadaa, Vikrama samvat 2065)

ध्रुव - कथा का रहस्यात्मक स्वरूप

- राधा गुप्ता

श्रीमद् भागवत पुराण के चतुर्थ स्कन्ध में अध्याय से अध्याय १२ तक ध्रुव की कथा विस्तार से वर्णित है और भक्तिपरक आवरण से आच्छादित है कथा का संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है -

          स्वायम्भुव मनु के दो पुत्रों में से एक थे - राजा उत्तानपाद राजा उत्तानपाद की रानियां थीं - सुरुचि और सुनीति सुरुचि का पुत्र था उत्तम तथा सुनीति का पुत्र था ध्रुव एक दिन जब राजा उत्तानपाद की गोद में उत्तम बैठा हुआ था, तब ध्रुव ने भी अपने पिता की गोद में बैठना चाहा परन्तु राजा ने उसका स्वागत नहीं किया और सुरुचि ने भी अपने वाiग्बाणों से ध्रुव को पीडि किया ध्रुव रोता हुआ अपनी माता सुनीति के पास आया रोने का समस्त वृत्तान्त जानकर माता सुनीति ने युक्तियुक्त वचनों के द्वारा ध्रुव के चित्त का समाधान करते हुए उसे किसी के प्रति भी द्वेष रखने, किसी के भी अमङ्गल की कामना करने, अपने कर्मों के फल को स्वयं ही भोगने, विमाता के वचनों को भी स्वीकार करने तथा उच्चपद की प्राप्ति हेतु भगवान् के चरण - कमलों का भजन करने के लिए प्रेरित किया तभी नारद जी वहां आए और उन्होंने ध्रुव को उसके निश्चय से डिगाने का यथायोग्य प्रयत्न किया परन्तु जब ध्रुव अपने निश्चय से विचलित नहीं हुए, तब नारद जी ने उन्हें सुनीति के वचनों का समर्थन करते हुए यमुना के वर्ती मधुवन में जाकर भगवद् - भजन करने की आज्ञा दी ध्रुव की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें दर्शन दिए और उनके हृदयस्थ संकल्प को पूर्ण करते हुए उन्हें ध्रुवलोक प्रदान किया पिता की आज्ञा से ध्रुव राज्य - सिंहासन पर आरूढ हुए भगवद् दर्शन से ध्रुव के मन की मलिनता दूर हो गई थी, इसलिए अब उन्हें नाशवान् वस्तु के रूप में उच्च पद की प्राप्ति रूप अपने संकल्प के प्रति पश्चात्ताप ही हुआ ध्रुव ने प्रजापति शिशुमार की पुत्री भ्रमि से विवाह किया जिससे उन्हें कल्प तथा वत्सर नामक दो पुत्र प्राप्त हुए तथा वायु - पुत्री इला से विवाह किया जिससे उत्कल नामक पुत्र प्राप्त हुआ एक दिन उनका भाई उत्तम मृगया करते हुए हिमालय की टी में एक बलवान् यक्ष द्वारा मारा गया तथा उसके साथ उसकी माता सुरुचि भी परलोक सिधार गई भाई की मृत्यु से व्यथित होकर ध्रुव यक्ष - देश में पहुंच गए और यक्षों के साथ उनका भयंकर युद्ध होता रहा अन्त में स्वायम्भुव मनु की शिक्षाओं से प्रेरित होकर ध्रुव युद्ध से विरत हो गए इससे यक्षों के स्वामी कुबेर को अत्यन्त हर्ष प्राप्त हुआ और उन्होंने ध्रुव को श्रीहरि की अखण्ड स्मृति बने रहने का वरदान दिया श्रीहरि की अखण्ड स्मृति से ध्रुव का देहाभिमान गया और नन्द - सुनन्द नामक भगवान् के पार्षदों के आग्रह करने पर ध्रुव ने माता सुनीति के साथ वद्धाम को प्राप्त किया

कथा में निहित रहस्यात्मकता

          प्रस्तुत कथा स्थिरता नामक गुण से सम्बन्ध रखती है तथा स्थिरता गुण के उद्भव एवं विकास के अनेक आयामों को प्रतीकात्मक भाषा - शैली में प्रस्तुत करती है अब हम कथा के रहस्यात्मक तथ्यों को प्रतीकों के आधार पर समझने का प्रयास करे -

. प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो मन नामक तत्त्व विद्यमान है, उसका कार्य है - संकल्प करना, विचार करना इस संकल्प अथवा विचार के दो स्तर हैं जन्म - जन्मान्तरों में अर्जित किए हुए संस्कारों के कारण जब तक मनुष्य स्वयं को देहमात्र मानता रहता है और अपने वास्तविक आत्मस्वरूप को भुलाए रखता है, तब तक उसके संकल्प, विचार देह - केन्द्रित होने के कारण सामान्य स्तर के होते हैं व्यवहार की भाषा में इस सामान्य स्तर को सामान्य मन कहा जा सकता है और ऐसे मन से क्रियान्वित जीवन भी सामान्य स्तर का जीवन ही होता है परन्तु प्रयत्नपूर्वक अर्जित ज्ञान द्वारा संस्कारों के क्षीण होने पर जब मनुष्य को अपने वास्तविक स्वरूप का किञ्चित् भान होने लगता है, तब उसके संकल्प, विचार आत्म - केन्द्रित होने से सामान्य स्तर से कर उच्चतर स्तर पर पहुंच जाते हैं व्यवहार की भाषा में इस उच्चतर स्तर को उच्च मन कहा जा सकता है और ऐसे मन से क्रियान्वित जीवन भी उच्चतर स्तर का जीवन होता है श्रीमद्भागवत में इस उच्च मन को 'स्वायम्भुव मनु' नाम दिया गया है

. इस उच्च मन की दो प्रवृत्तियां(tendencies) होती हैं पहली प्रवृत्ति है - विभिन्न साधनाओं का आश्रय लेकर सतत् ऊंचाई की ओर बढते हुए आत्म - स्वरूप में स्थित हो जाना मनुष्य की यह व्यक्तिगत साधना है कि सर्वप्रथम वह स्वयं को पहचाने कि 'मैं कौन हूं'? मैं शुद्ध बुद्ध शान्त स्वरूप आत्मा हूं ' - इस रूप में स्वयं की पहचान दूसरों की भी पहचान बन जाती है क्योंकि एक ही आत्मा(परमात्मा) सबमें समान रूप से व्याप्त है अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि परमात्मा ही अंश रूप से हम सभी जीवों के अन्दर आत्मा रूप में विराजमान है अतः आत्म स्वरूप में स्थित होते ही मनुष्य एकत्व भाव में, समत्व भाव में स्थित होने लगता है यह एकत्व तथा समत्व भाव स्वाभाविक रूप से मनुष्य को सीमित स्वार्थ से हटाकर परमार्थ की ओर प्रवृत्त कर देता है परमार्थ में प्रवृत्त होना ही उपर्युक्त वर्णित उच्च मन की दूसरी प्रवृत्ति है परन्तु यह दूसरी प्रवृत्ति प्रथम प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही घटित होती है श्रीमद्भागवत में उच्च मन की प्रथम प्रवृत्ति को 'उत्तानपाद' तथा दूसरी प्रवृत्ति को 'प्रियव्रत' नाम दिया गया है इन्हीं दोनों प्रवृत्तियों(tendencies) का दूसरा नाम एकान्तिक अथवा व्यष्टिगत साधना तथा सार्वत्रिक अथवा समष्टिगत साधना भी है वर्तमान भाषा में इन्हें ही ऊर्ध्व विकास(vertical evolution) तथा क्षैतिज विकास(horizontal evolution) नाम दिया गया है चूंकि प्रथम तथा द्वितीय दोनों प्रवृत्तियां उच्च मन से प्रकट होती हैं, इसीलिए श्रीमद्भागवत की प्रतीक भाषा में इन्हें स्वायम्भुव मनु के दो पुत्र कहकर इंगित किया गया है

. उच्च मन की प्रथम प्रवृत्ति अर्थात् उत्तानपाद को दो शक्तियां प्राप्त हैं अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि सतत् ऊंचाई की ओर बढने वाला मनुष्य का मन दो शक्तियों से युक्त है पहली शक्ति है - सुरुचि अर्थात् रुचि का परिष्कृत स्वरूप तथा दूसरी शक्ति है - सुनीति अर्थात् आचरण में श्रेष्ठता व्यष्टिगत साधना में संलग्न होने पर मनुष्य की रुचि में परिष्कार होता है अर्थात् वह असद् से कर सद् की इच्छा करने लगता है तथा स्वार्थ से कर परार्थ को पसन्द करने लगता है परन्तु रुचि का यह परिष्कार उसमें श्रेष्ठता के अहंकार को जन्म दे देता है मनुष्य अहंकार के इस स्वरूप को पहचान नहीं पाता और उसे अपने अंक में स्थान दे देता है इसे ही कथा में राजा उत्तानपाद द्वारा सुरुचि के पुत्र उत्तम को गोद में बैठाना कहा गया है उत्तम शब्द उद् + तम से बना है जिसका अर्थ है - ऊंचा अंधकार अर्थात् अहंकार मनुष्य का यह अहंकार तब तक नष्ट नहीं होता जब तक वह अपनी साधना के क्रम में खोजी बनकर प्रगति करते हुए धनात्मकता(positivity) के क्षेत्र में नहीं पहुंच जाता

.धनात्मकता (positivity) का अर्थ है - मन का इस दृढ संकल्प में स्थित हो जाना कि घटनाओं, परिस्थितियों तथा सम्बन्धों आदि के रूप में इस जीवन में जो भी घटित हो रहा है, वह सब एक गहन व्यवस्था के अन्तर्गत ही घटित हो रहा है इस ब्रह्माण्ड में ऐसे अनेक नियम क्रियाशील हैं जिन्हें हम देख नहीं पाते, जान नहीं पाते उन नियमों में बंधकर ही हमारे जीवन में समस्त क्रियाएं घटित हो रही हैं - आकस्मिक (accidental)  कुछ भी नहीं है जीवन में प्रतीत होने वाले समस्त सुख - दुःख, शुभ - अशुभ, जय - पराजय, लाभ - हानि - सब कुछ उसी व्यवस्था के अन्तर्गत हैं तथा निश्चित रूप से हमारे जीवन के उत्थान के लिए ही हैं इस धनात्मकता में स्थित होने को ही श्रीमद् भागवत में धन के स्वामी कुबेर के क्षेत्र में निवास करना अथवा हिमालय की टी में पहुंचना कहा गया है

. धनात्मक संकल्प में स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आने वाली प्रत्येक घटना अथवा परिस्थिति के समय मन में जो तत्सम्बन्धित नाना प्रकार के विचार या भाव उत्पन्न होते रहते हैं - वे ही यक्ष कहलाते हैं ये यक्ष कुबेर के अनुचर कहे जाते हैं अनुचर का अर्थ है - पीछे - पीछे चलने वाला अतः धनात्मक संकल्प में स्थिति के पीछे - पीछे आने वाले विचार तथा भाव ही यक्ष हैं परन्तु किसी कठिन परिस्थिति विशेष में कोई प्रबल धनात्मक विचार उत्पन्न होकर मनुष्य के अहंकार तक का नाश कर देता है इसे ही कथा में सुरुचि के पुत्र उत्तम का मृगया करते हुए हिमालय की टी अथवा कुबेर के क्षेत्र में पहुंचकर बलवान् यक्ष के द्वारा मारा जाना कहा गया है यह तथ्य इंगित करता है कि परिष्कृत रुचि के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ श्रेष्ठता का अहंकार धनात्मकता(positivity) में स्थित होने पर किसी प्रबल धनात्मक विचार द्वारा ही नष्ट होता है, उससे पहले नहीं

. व्यष्टिगत साधना में लगे हुए मन(मनुष्य) अर्थात् उत्तानपाद की दूसरी शक्ति है - सुनीति सुनीति का अर्थ है - श्रेष्ठ आचरण श्रेष्ठ आचरण का अर्थ है - मन- बुद्धि का प्रेम, समर्पण, सहयोग जैसे सकारात्मक विचारों से युक्त होना, इस विराट् जगत् में व्याप्त गहन व्यवस्था अर्थात् परमात्मा के प्रति श्रद्धा - आस्था ना तथा जीवन में घटित हुई प्रत्येक शुभ - अशुभ स्थिति को स्वीकार करना विमाता द्वारा पीडि होने पर बालक ध्रुव के प्रति कहे गए माता सुनीति के वचन उपर्युक्त कथन की ही पुष्टि करते हैं किसी के प्रति भी द्वेष करना, किसी के भी अमङ्गल की कामना करना मन के सकारात्मक विचारों को इंगित करते हैं विमाता सुरुचि द्वारा कही हुई बात को स्वीकार कर उसका समर्थन करना अस्तित्व में व्याप्त गहन व्यवस्था के प्रति अथवा परमात्मा के प्रति श्रद्धा है तथा भगवान् का भजन करना प्रत्येक घटना के प्रति स्वीकार भाव को इंगित करता है इस शक्ति का आश्रय लेकर अर्थात् श्रेष्ठ आचरण द्वारा मनुष्य साधना के पथ पर शीघ्रता और सुगमता से आगे बढ सकता है क्योंकि श्रेष्ठ आचरण का स्वाभाविक प्रसूत गुण है - स्थिरता(stability), जिसे कथा में 'ध्रुव' कहा गया है

. स्थिरता(stability) का अर्थ है - प्रत्येक विचार, भाव, परिस्थिति, घटना अथवा सम्बन्ध के प्रति मन स्थिर बने रहना, विचलित होना जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, यह स्थिरता तब ही उद्भूत होती है जब मनुष्य जीवन में आने वाले प्रत्येक शुभ - अशुभ को समान भाव से स्वीकार करे शुभ - अशुभ के प्रति स्वीकृति का भाव तब आता है जब मनुष्य इस विराट् अस्तित्व में व्याप्त गहन व्यवस्था के प्रति श्रद्धा के भाव से भरा हो और श्रद्धा तब उत्पन्न होती है जब मन का चिन्तन सकारात्मक हो अर्थात् मन द्वेष, घृणा, अहंकार जैसे नकारात्मक भावों से युक्त होकर प्रेम के सकारात्मक भाव से भरा हो

          परन्तु व्यष्टिगत साधना में लगे हुए ऊर्ध्व मन अर्थात् उत्तानपाद के साथ यह एक विडम्बना ही है कि वह अपनी रुचि के परिष्कृत स्वरूप (सुरुचि) पर आसक्त होकर श्रेष्ठता के अहंकार को धारण कर लेता है और श्रेष्ठ आचरण(सुनीति) के महत्त्व को पहचानकर उस श्रेष्ठ आचरण से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न स्थिरता के अप्रतिम गुण(ध्रुव) का तिरस्कार करता है

. श्रेष्ठ आचरणशीलता के फलस्वरूप मन में उत्पन्न हुआ स्थिरता का गुण यद्यपि अपनी प्राथमिक अवस्था में अधिक सुदृढता से नहीं टिक पाता अर्थात् मन बार - बार विचलित हो जाता है, तथापि यदि उसकी सुदृढ स्थापना हेतु मन में प्रगाढ इच्छा हो तथा मन दृढसंकल्पित हो, तब इस प्रगाढ इच्छा तथा दृढ संकल्प की तरंगें ही आकर्षण के नियम अथवा किसी अदृश्य समग्र चेतना द्वारा अस्तित्व में पहुंचती हैं वहां स्थित समान तरंगों से प्रतिक्रिया करती हैं तथा प्रबल होकर पुनः अपने स्रोत तक लौटकर उसके संकल्प को पूर्ण करती हैं अब स्थिरता का गुण मन में परिपक्व रूप में स्थित हो जाता है इस सम्पूर्ण वैज्ञानिक प्रक्रिया को कथा में ध्रुव के तप, नारद जी के आगमन, उनके उपदेश तथा भगवान् द्वारा ध्रुव को ध्रुव लोक प्रदान करने के रूप में व्यक्त किया गया है

. नारद जी ने ध्रुव को यमना वर्ती मधुवन में जाकर भगवद् भजन करने का परामर्श दिया यह कथन इंगित करता है कि स्थिरता गुण की प्राप्ति के लिए कर्मक्षेत्र को छोडने की आवश्यकता नहीं है स्वधर्म रूप कर्म का आचरण करते हुए प्रत्येक परिस्थिति को स्वीकार करते हुए ही मन में स्थिरता गुण घटित होता है

१०. परिपक्व स्थिर मन किसी भी प्रकार के नकारात्मक विचार तथा भाव से नहीं टकराता क्योंकि स्थिरता की आधार भूमि ही सकारात्मक विचार तथा भाव होते हैं परन्तु सकारात्मक विचारों तथा भावों से इसकी टकराह तब तक चलती रहती है जब तक अपने ही उच्च मन के माध्यम से इसे यह निर्देश नहीं मिल जाता कि सकारात्मक विचार तथा भाव जब किसी प्रकार का अहित करते ही नहीं, तब इनसे टकराने तथा इनको मार डालने का क्या औचित्य? इनको इनके क्षेत्र में विचरण करने देना चाहिए भाव यह है कि ज्ञात होने के कारण ही स्थिर मन सकारात्मक विचारों तथा भावों से संघर्ष करता है, ज्ञात हो जाने पर तो उसका यह संघर्ष भी समाप्त हो जाता है इसी तथ्य को कथा में ध्रुव का यक्षों से युद्ध तथा स्वायम्भुव मनु के समझाने पर युद्ध की समाप्ति कहकर इंगित किया गया है

११. कथा में कहा गया है कि यक्षों के साथ युद्ध के बन्द हो जाने पर कुबेर ने ध्रुव को वरदान के रूप में अखण्ड हरि स्मृति प्रदान की इसका तात्पर्य यह है कि धनात्मकता अर्थात् पूर्ण सकारात्मकता में स्थिति के फलस्वरूप घटित हुआ स्थिर मन अब देहभाव से संयुक्त रहकर आत्म भाव से संयुक्त हो जाता है इस संयुक्तता को 'योग में स्थित होना' भी कहा जाता है

१२. जब तक स्थिर मन में किसी भी प्रकार का संघर्ष है, टकराव है, फिर चाहे वह सकारात्मक विचारों से ही क्यों हो - तब तक आत्मा अथवा परमात्मा से योग नहीं हो सकता संघर्ष की समाप्ति  ही आत्म - स्वरूप में स्थिति द्वारा मनुष्य के भीतर उस द्वार को खोल देती है जिससे जीवन में शान्ति, आनन्द तथा ज्ञान का प्रवाह फूट पडता है इसे ही कथा में ध्रुव का माता सहित नन्द - सुनन्द पार्षदों के साथ विष्णु - धाम में पहुंचना कहा गया है

१३. कथा में कहा गया है कि ध्रुव ने शिशुमार प्रजापति की पुत्री भ्रमि के साथ विवाह किया जिससे कल्प और वत्सर नामक दो पुत्र प्राप्त हुए

          शिशुमार का अर्थ है - सर्प मनुष्य शरीर में जो प्राण विद्यमान हैं, उसे पांच फन वाला सर्प कहा जाता है इस प्राण की श्वास - प्रश्वास के रूप में जो भ्रमणशीलता है, उसे ही यहां 'भ्रमि' कहा गया है मन जब स्थिर भाव को प्राप्त होता है, तब मात्र श्वास - प्रश्वास की भ्रमणशीलता ही उसके साथ रहती है, अन्य किसी भी विचार अथवा भाव की स्फुरणा उस समय नहीं रहती यही ध्यानावस्था में ध्रुव रूपी स्थिरता का भ्रमि रूपी शिशुमार की पुत्री से विवाह होना है ऐसी स्थिर स्थिति में अथवा कहें ध्यानावस्था में मन को जो काल के अति व्यापक स्वरूप का भान होता है, उसे ही सम्भवतः यहां कल्प(काल की सबसे बडी इकाई) नामक पुत्र का प्राप्त होना कहा गया है इसके साथ ही ऐसी ध्यानावस्था में मन का सम्बन्ध अत्यन्त शुद्धता, पवित्रता तथा बोध(ज्ञान) के साथ जुडता है, जिसे शास्त्रों की भाषा में मनोमय कोश का विज्ञानमय कोश से जुडना कहा गया है इस जुडाव अथवा संयुक्तता को ही कथा में ध्रुव एवं भ्रमि का 'वत्सर' नामक पुत्र कहकर इंगित किया गया है 'वत्सर' शब्द 'वत्स' में '' एकाक्षर के जुडने से बना है डा. फतहसिंह के अनुसार विज्ञानमय कोश को 'गौ' कहा जाता है तथा मनोमय कोश को उसका वत्स अथवा डा '' का अर्थ है - एकजुट होना इस प्रकार वत्सर का अर्थ हुआ - वत्स का गौ से जुडना अर्थात् मन(मनोमय कोश) का पवित्रता, शुद्धता तथा ज्ञान(विज्ञानमय कोश) से संयुक्त हो जाना

१४. कथा में कहा गया है कि ध्रुव की दूसरी पत्नी वायु - पुत्री इला थी जिससे उत्कल पुत्र का जन्म हुआ

          इला का अर्थ है - प्रज्ञा स्थिर मन चूंकि प्रज्ञा से संयुक्त होता है, इसलिए इला को ध्रुव की पत्नी कहना युक्तिसंगत ही है 'उत्कल' शब्द का अर्थ है - ऊर्ध्वमुखी गति । स्थिर मन के प्रज्ञा से संयुक्त होने पर चेतना की गति ऊर्ध्वमुखी ही रहती है इला को वायु - पुत्री कहा गया है ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन में जो दो प्रकार की शान्त तथा अशान्त परिस्थितियां आती हैं, उनमें से शान्त परिस्थिति में तो स्थिर मन का सम्बन्ध 'भ्रमि' से जुडा रहता है, परन्तु अशान्त परिस्थिति में स्थिर मन 'प्रज्ञा' से संयुक्त होकर परिस्थिति का सामना कर लेता है

This page was last updated on 07/27/10.